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( १८ ) सवर्ण गणित, ( १९) प्रक्षेपक गणित, ( २० ) समक्रय-विक्रय गणित, (२१) श्रेणीव्यवहार, ( २२ ) क्षेत्र व्यवहार, ( २३ ) छायाव्यवहार, ( २४ ) स्वांशानुबन्ध, ( २५ ) स्वांशापवाह, (२६ ) इष्टकर्म, ( २७ ) द्वीष्टकर्म, (२८) चितिघन, (२९) घनातिघन, (३०) एकपत्रीकरण एवं ( ३१ ) वर्गप्रकृति आदि सिद्धान्तों का अंकगणित में प्रयोग होने लग गया था ।
रेखागणित के भी अनेक सिद्धान्तों का प्रयोग उस काल में व्यापक रूप से होता था। तथा इस विषय का वर्णन इस युग के प्रायः सभी ज्योतिर्विदों ने विस्तार से किया है। सिद्धान्त गणित, जिसके लिए जीवा-चाप के गणित की नितान्त आवश्यकता होती है और जिसका प्रचार आदिकाल से ही चला आ रहा था, इस युग में उसमें अनेक संशोधन किये गये। लल्लाचार्य ने उत्क्रमज्या द्वारा ही ग्रहगणित का साधन किया था, पर इस काल के आचार्यों ने यूनान और ग्रीस के सम्पर्क से क्रमज्या, कोटिज्या, कोट्युक्रमज्या आदि द्वारा ग्रहगणित का साधन किया। पूर्वमध्यकाल के ज्योतिष-साहित्य में रेखागणित के निम्न सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है
१. समकोण त्रिभुज में कर्ण का वर्ग दोनों भुजाओं के जोड़ के बराबर होता है। २. दिये हुए दो वर्गों का योग अथवा अन्तर के समान वर्ग बनाना। ३. आयत को वर्ग या वर्ग को आयत में बदलना। ४. करणों द्वारा राशियों का वास्तविक वर्गमूल निकालना । ५. वृत्त को वर्ग और वर्ग को वृत्तों में बदलना। ६. शंकु और वर्तुल के घनफल निकालना ।
७. विषमकोण चतुर्भुज के कर्णानयन की विधि और उसके दोनों कर्णों के ज्ञान से भुज-साधन करना।
८. त्रिभुज, विषमकोण, चतुर्भुज और वृत्त का क्षेत्रफल निकालना । ९. सूचीव्यास, वलयव्यास और वृत्तान्तर्गत वृत्त का व्यास निकालना । १०. वृत्तपरिधि, वृत्तसूची और उसके घनफल को निकालना ।
रेखागणित और भूमिति गणित के साथ-साथ कोणमिति के ज्योतिषत्रिविषयक गणितों का प्रचार भी ई. सन् ७००-८०० के मध्य में हुआ था तथा ब्रह्मगुप्त ने इस सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्त निर्धारित कर त्रिकोणमिति गणित को ग्रहसाधन के लिए व्यवहृत किया था।
बृहत्संहिता में दैवज्ञ की विद्वत्ता की समालोचना करते हुए लिखा है
तत्र ग्रहगणिते पौलिशरोमकवासिष्ठसौरपैतामहेषु पञ्चस्वेतेषु सिद्धान्तेषु युगवर्षायनर्तुमासपक्षाहोरात्रयाममुहूर्त्तनाढीविनाडीप्राणत्रुटित्रुव्यवयवाद्यस्य कालस्य क्षेत्रस्य च वेत्ता।
चतुण्णां च मासानां सौरसावननाक्षत्रचान्द्राणामधिमासकावसंभवस्य च कारणामिज्ञः।
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