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उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट है कि भास्कराचार्य भी लल्ल की विद्वत्ता के कायल थे।
यदि सूक्ष्मनिरीक्षण द्वारा भास्कर की रचनाओं का परीक्षण किया जाये तो स्पष्ट ज्ञाप्त होगा कि लल्लाचार्य की अनेक बातें ज्यों की त्यों अपना ली गयी हैं । उत्क्रमज्या द्वारा साधित ग्रहप्रणाली इनकी मौलिक विशेषता है ।
पूर्वमध्यकाल (ई. ५०१-१००० तक ) सामान्य परिचय
__ इस युग में ज्योतिषशास्त्र उन्नति की चरम सीमा पर था। वराहमिहिर-जैसे अनेक धुरन्धर ज्योतिर्विद् हुए, जिन्होंने इस विज्ञान को क्रमबद्ध किया तथा अपनी अद्वितीय प्रतिभा द्वारा अनेक नवीन विषयों का समावेश किया। इस युग के प्रारम्भिक आचार्य वराहमिहिर या वराह हैं, जिन्होंने अपने पूर्वकालीन प्रचलित सिद्धान्तों का पंचसिद्धान्तिका में संग्रह किया। इस काल में ज्योतिष के सिद्धान्त, संहिता और होरा ये तीन भेद प्रस्फुटित हो गये थे। ग्रहगणित के क्षेत्र में सिद्धान्त, तन्त्र एवं करण इन तीन भेदों का प्रचार भी होने लग गया था। सिद्धान्तगणित में कल्पादि से, तन्त्र में युगादि से और करण में शकाब्द पर से अहर्गण बनाकर ग्रहादि का आनयन किया जाता है। सिद्धान्त में जीवा और चाप के गणित द्वारा ग्रहों का फल लाकर आनीत मध्यमग्रह में संस्कार कर देते हैं तथा भौमादि ग्रहों का मन्द और शीघ्रफल लाकर मन्दस्पष्ट और स्पष्ट मान सिद्ध करते हैं ।
इस काल में उदयास्त, युति, शृंगोन्नति आदि का गणित भी प्रचलित हो गया था। ब्रह्मपुत्र और महावीराचार्य ने गणित विषय के अनेक सिद्धान्तों को साहित्य का रूप प्रदान किया। महावीराचार्यकी असीमाबद्ध संख्याओं के समाधान की क्रिया बड़ी विलक्षण है। उपर्युक्त दोनों आचार्यों के बीजगणित-विषयक सिद्धान्तों पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होगा कि इस युग में-(१) ऋण राशियों के समीकरण की कल्पना, (२) वर्ग समीकरण को हल करना, ( ३ ) एक वर्ग, अनेक वर्ग समीकरण कल्पना, (४) वर्ग, घन और अनेक घातसमीकरणों को हल करना, (५) अंकपाश, संख्या के एकादि भेद और कुट्टक के नियम, (६ ) केन्द्रफल को निकालना, (७) असीमाबद्ध समीकरण, (८) द्वितीय स्थान की राशियों का असीमाबद्ध समीकरण, (९) अर्द्धच्छेद, त्रिकच्छेद आदि लघुरिक्थ सम्बन्धी गणित, (१०) अभिन्न राशियों का भिन्न राशियों के रूप में परिवर्तन करना आदि सिद्धान्त प्रचलित थे।
पूर्वमध्यकाल में अंकगणित के भी निम्न सिद्धान्त आविष्कृत हो चुके थे
(१) अभिन्न गुणन, (२) भागहार, (३) वर्ग, (४) वर्गमूल, (५) घन, ( ६ ) घनमूल, (७) भिन्न-समच्छेद, (८) भागजाति, (९) प्रभागजाति, (१०) भागानुबन्ध, ( ११ ) भागमातृजाति, ( १२ ) त्रैराशिक, (१३ ) पंचराशिक, ( १४ ) सप्तराशिक, (१५) नवराशिक, (१६) भाण्ड-प्रतिभाण्ड, (१७ ) मिश्र-व्यवहार,
प्रयमाश्याय
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