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है । ईसवी सन् की प्रथम और द्वितीय शताब्दी के मध्य में होनेवाले आचार्य उमास्वामी भी ज्योतिष के आवश्यक सिद्धान्तों से अभिज्ञ थे ।
द्वितीय आर्यभट्ट-इनका सिद्धान्त 'महाआर्यभट्टीय' के नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'महाआर्यसिद्धान्त' भी बताया जाता है। इसमें १८ अध्याय एवं ६२५ आर्या-उपगीति हैं; पाटीगणित, क्षेत्र-व्यवहार और बीजगणित भी इसमें सम्मिलित हैं। पराशर सिद्धान्त से इसमें ग्रह भगण लिये हैं। इसने प्रथम आर्यभट्ट के सिद्धान्त में कई तरह से संशोधन किया है। कुछ लोग द्वितीय आर्यभट्ट का काल ब्रह्मगुप्त के बाद बतलाते हैं, पर निश्चित प्रमाण के अभाव में कुछ नहीं कहा जा सकता है । भास्कराचार्य ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि के स्पष्टाधिकार में द्रेष्काणोदय आर्यभट्टीय का दिया है, अतः यह भास्कर के पूर्ववर्ती हैं, इतना निश्चित है । महाआर्यसिद्धान्त ज्योतिष की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसकी परम्परा पीछे के अनेक ज्योतिर्विदों ने अपनायी है । इनके जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं, पर इनके पाण्डित्य का अनुमान महाआर्यसिद्धान्त से किया जा सकता है ।
लल्लाचार्य-इन : पिता का नाम भट्टत्रिविक्रम और पितामह का नाम शाम्ब था। लल्लाचार्य के गुरु का नाम प्रथम आर्यभट्ट बताया गया है। इनका जन्म शक सं. ४२१ में हुआ था। इन्होंने अपने "शिष्यधीवृद्धि' नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना आर्यभट्ट की परम्परा को लेकर की है
आचार्यभटोदितं सुविषमं व्योमौकसा कर्म यच्छिष्याणाममिधीयते तदधुना लल्लेन धीवृद्धिदम् ॥ विज्ञाय शास्त्रमलमार्यभटप्रणीतं तन्त्राणि यद्यपि कृतानि तदीयशिष्यैः । कर्मक्रमो न खलु सम्यगुदीरितस्तैः कर्म ब्रवीम्यहमतः क्रमशस्तु सूक्तम् ।।
लल्लाचार्य गणित, जातक और संहिता इन तीनों स्कन्धों में पूर्ण प्रवीण थे। यद्यपि यह आर्यभट्ट के सिद्धान्तों को लेकर चले हैं, पर तो भी अनेक विशेष विषय इनके ग्रन्थों में पाये जाते हैं । शिष्यधीवृद्धि में प्रधान रूप से गणिताध्याय और गोलाध्याय, ये दो प्रकरण हैं। गणिताध्याय में मध्यमाधिकार, स्पष्टाधिकार, त्रिप्रश्नाधिकार, चन्द्रग्रहणाधिकार, सूर्यग्रहणाधिकार, पर्वसम्भवाधिकार, ग्रहयुत्यधिकार, भग्रहयुत्यधिकार, महापाताधिकार और उत्तराधिकार नामक उपप्रकरण हैं। गोलाध्याय में छेदाधिकार, गोलबन्धाधिकार, मध्यगतिवासना, भूगोलाध्याय, ग्रहभ्रमसंस्थाध्याय, भुवनकोश मिथ्याज्ञानाध्याय, यन्त्राध्याय और प्रश्नाध्याय नामक उपप्रकरण हैं। इनका 'रत्नकोष' नामक संहिता ग्रन्थ भी मिलता है। भास्कराचार्य ने यद्यपि इनके सिद्धान्तों का खण्डन किया है, पर तो भी इनकी विद्वत्ता का लोहा उन्होंने मानने से इनकार नहीं किया है ।
त्रिस्कन्धविद्याकुशलैकमल्लो लल्लोऽपि यत्राप्रतिमो बभूव । यातेऽपि किंचिद् गणिताधिकारे पाताधिकारे गमनाधिकारः ॥
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