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पूर्ण बातें जानी जा सकती है । बरतन, भोजन, भक्ष्य पदार्थ, वस्त्राभूषण, सिक्के प्रभृति का विस्तारपूर्वक निर्देश किया है। इस ग्रन्थ के परिशिष्ट के रूप में 'सटीक अंगविद्याशास्त्र' दिया गया है। इसमें अंग-प्रत्यंग के स्पर्शनपूर्वक शुभाशुभ फलों का निरूपण किया है । संस्कृत में श्लोक लिखे गये हैं और टीका भी संस्कृत में निबद्ध है। ४४ पद्य हैं और टीका में अनेक महत्त्वपूर्ण बातें लिखी गयी हैं। इस छोटे-से ग्रन्थ का विषय प्राचीन है, पर भाषा-शैली प्राचीन प्रतीत नहीं होती। इसके रचयिता का भी नाम ज्ञात नहीं है, पर इतना स्पष्ट है कि अंगविद्या भारत का पुरातन ज्ञान है। ग्रन्थ के आरम्भ में टीका में बताया है
"कालोऽन्तरात्मा सर्वदा सर्वदर्शी शुभाशुभः फलसूचकैः सविशेषेण प्राणिनामपराङ्गेषु स्पर्श-व्यवहारेङ्गित चेष्टादिमिनिमित्तैः फलममिदर्शयति ॥" अर्थात्-अंगस्पर्श, व्यवहार और चर्या-चेष्टादि के द्वारा शुभाशुभ फल का निरूपण किया गया है। इस लघुकाय ग्रन्थ में अंगों की विभिन्न संज्ञाओं के उपरान्त फलादेश निबद्ध किया गया है।
कालकाचार्य-वह निमित्त और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान् थे । इन्होंने अपनी प्रतिभा से शककुल के साहि को स्ववश किया था तथा गर्दभिल्ल को दण्ड दिया था, जैन परम्परा में ज्योतिष के प्रवर्तकों में इनका मुख्य स्थान है, यदि यह आचार्य निमित्त और संहिता का निर्माण न करते तो उत्तरवर्ती जैन लेखक ज्योतिष को पापश्रुत समझकर अछूता ही छोड़ देते।
कालक कथाओं से पता चलता है कि यह मध्य देशान्तर्गत, 'धारावास' नामक नगर के राजा वयरसिंह के पुत्र थे। इनकी माता का नाम सुरसुन्दरी और बहन का नाम सरस्वती था। एक बार यह घोड़े पर वन में घूमने गये, वहाँ इनकी जैन मुनि गुणाकर से मुलाकात हुई और उनका धर्मोपदेश सुनकर संसार से विरक्त हो गये और बहुत समय तक जैन शास्त्रों का अभ्यास करते रहे तथा थोड़े समय के पश्चात् आचार्य पद को प्राप्त हुए। पाटन ( उत्तर गुजरात ) के एक ताड़पत्रीय पुस्तक भण्डार में ताड़पत्र पर लिखे गये एक प्रकरण में एक प्राकृत गाथा मिली है, जिसमें बताया गया है कि-"कालक सूरि ने प्रथमानुयोग में जिन, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के चरित्र और उनके पूर्व भवों का वर्णन किया है। तथा लोकानुयोग में बहुत बड़े निमित्तशास्त्र की रचना की है।" भोजसागर गणि नामक विद्वान् ने संस्कृत भाषा में रमल विद्या-विषयक एक ग्रन्थ लिखा है, उसमें उन्होंने कालकाचार्य द्वारा यवन देश से लायी गयी इस विद्या को बताया है। इस घटना में चाहे तथ्य हो या नहीं, पर इतना स्पष्ट है कि ईसवी सन की तीसरी शताब्दी के ज्योतिविदों में इनका गौरवपूर्ण स्थान था । वराहमिहिराचार्य ने बृहज्जातक में कालकसंहिता का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने एक संहिता ग्रन्थ भी लिखा था, जो आज उपलब्ध नहीं है, पर निशीथणि, आवश्यकचूणि आदि ग्रन्थों से इनके ज्योतिष-ज्ञान का पता सहज में लगाया जा सकता
प्रथमाध्याय
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