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________________ दासी दासं जाण-जुग्गं गो-माहिसमडयाविलं । घण घण्णं खेत्त-वत्थं च विज्जा संपत्तिमेव य ॥ ९ । १० पृ. ६० मस्तक, सिर, सीमन्तक, ललाट, नेत्र, कान, कपोल, ओष्ठ, दाँत, मुख, मसूड़ा, कन्धा, बाहु, मणिबन्ध, हाथ, पैर प्रभृति ७५ अंगों का एक बार स्पर्श कर प्रश्नकर्ता प्रश्न करे तो अर्थलाभ, जय, शत्रुओं के पराजय, मित्र सम्पत्ति प्राप्ति, समागम, घर में निवास, स्थानलाभ, यशप्राप्ति, निवृत्ति, प्रतिष्ठा, भोगप्राप्ति, सुख, दासी - दास, यान --- सर्वारी, गाय-भैंस, धन-धान्य, क्षेत्र, वास्तु, विद्या एवं सम्पत्ति आदि की प्राप्ति होती है । उक्त अंगों का एक बार से अधिक स्पर्श करे तो फल विपरीत होता है । वस्त्र और आभूषणों के स्पर्श का फलादेश भी वर्णित है । इस सन्दर्भ में विभिन्न प्रकार के मनुष्य, देवयोनि, नक्षत्र, चतुष्पद, पक्षी, मत्स्य, वृक्ष, गुल्म, पुष्प, फल, वस्त्र, आभूषण, भोजन, शयनासन, भाण्डोपकरण, धातु, मणि एवं सिक्कों के नामों की सूचियाँ दी गयी हैं । वस्त्रों में पटशाटक, क्षौम, दुकूल, चीनांशुक, चीनपट्ट, प्रावार, शाटक, श्वेतशाट, कौशेय और नाना प्रकार के कम्बलों का उल्लेख आया है। पहनने के वस्त्रों में उत्तरीय, उष्णीष, कंचुक, वारबाण, सन्नाहपट्ट, विताणक, पच्छत - पिछौरी एवं मल्लसाडकपहलवानों के लंगोट का उल्लेख है । आभूषणों की नामावली विशेष रोचक है । किरीट और मुकुट सिर पर पहनने के आभूषण हैं । सिंहभण्डक वह सुन्दर आभूषण था जिसमें सिंह के मुख की आकृति बनी रहती थी और उस मुख में से मोतियों के झुग्गे लटकते हुए दिखाये जाते थे । गरुड़ की आकृतिवाला आभूषण गरुडक और दो मकरमुखों की आकृतियों को मिलाकर बनाया गया आभूषण मगरक कहलाता था । इसी प्रकार बैल की आकृतिवाला वृषभक, हाथी की आकृतिवाला हत्थिक और चक्रवाक मिथुन की आकृतिवाला चक्र मिथुनक कहलाता था । इन वस्त्र और आभूषणों के स्पर्श और अवलोकन से विभिन्न प्रकार के फलादेश वर्णित हैं । www ५५वें अध्याय में पृथ्वी के भीतर निहित धन को जानने की प्रक्रिया वर्णित है । "तत्थ अस्थि णिधितं ति पुण्वमाधारित णिधितमट्टविधमादिसे । तं जधा - मिण्णसतपमाण मिण्णसहस्लपमाणं सय सहस्सपमाणं कोडिपमाणं अपरिमियपमाणमिति । कायमंतेसु उम्मट्ठेषु परिमियणिहाणं बूया । तस्थं अपुष्णामेसु अब्मंतरामासे दढामासे सिद्धमासे सुदामा से पुण्णामासे य समं बूया । भिण्णे दसक्खे पुग्वावाधारित दो वा चत्तारि वा अट्ठ वा बूया । समे पुग्वाधारित दसक्खेवीसं वा [चत्तालीसं वा] सट्ठि वा बूया ।" पृ. २१३ । स्पष्ट है कि पृथ्वी में निहित निधि का आनयन एवं तत्सम्बन्धी विभिन्न जानकारी प्रश्नों के द्वारा की जा सकती है । निधि की प्राप्ति किस देश में होगी, इसका विचार भी किया गया है । नष्ट धन के आनयन का विचार ५७ वें अध्याय में किया है । सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारागण आदि के विचार द्वारा नष्टकोष का विचार इस ग्रन्थ की प्रश्नप्रक्रिया एक प्रकार से शकुन और चर्या - चेष्टा पर प्रसंगवश दी गयी विभिन्न सूचियों के आधार से संस्कृति और सभ्यता की अनेक महत्त्व - किया गया है । अवलम्बित है । भारतीय ज्योतिष ७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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