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________________ षष्ठयब्दयुगवर्षमासदिनहोराधिपतीनां प्रतिपत्तिविच्छेदवित् । सौरादीनां च मानानां सदृशासदृशयोग्यायोग्यत्वप्रतिपादनपटुः ॥ सिद्धान्तभेदेऽप्ययन निवृत्तौ प्रत्यक्षं सममण्डहरेखासंप्रयोगाभ्युदितांशकानां च छायाजलयन्त्रदृग्गणितसाम्येन प्रतिपादनकुशलः । सूर्यादीनां च ग्रहाणां शीघ्रमन्दयाम्योत्तरनीचोच्चगतिकारणामिज्ञः। अर्थात् -पौलिश, रोमक, वसिष्ठ, सौर, पितामह इन पांचों सिद्धान्त सम्बन्धी युग, वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, अहोरात्र, प्रहर, मुहूर्त, घटी, पल, प्राण, त्रुटि और त्रुटि के सूक्ष्म अवयव काल विभाग; कला, विकला, अंश और राशि रूप सूक्ष्म क्षेत्रविभाग; सौर, सावन, नाक्षत्र और चान्द्र मास, अधिमास तथा क्षयमास का सोपपत्तिक विवरण; सौर एवं चान्द्र दिनों का यथार्थ मान और प्रचलित मान्यताओं के परीक्षण का विवेक; सममण्डलीय छायागणित; जलयन्त्र द्वारा दृग्गणित; सूर्यादि ग्रहों को शीघ्रगति, मन्दगति, दक्षिणगति, उत्तरगति, नीच और उच्च गति तथा उनकी वासनाएँ, सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण में स्पर्श और मोक्षकाल; स्पर्श और मोक्ष की दिशा; ग्रहण की स्थिति, विमर्द, वर्ण और देश; ग्रहयुति, ग्रहस्थिति, ग्रहों की योजनात्मक कक्षाएँ; पृथ्वी, नक्षत्र आदि का भ्रमण; अक्षांश, लम्बांश, धुज्या, चरखण्डकाल, राशियों के उदयमान एवं छायागणित आदि विभिन्न विषयों में पारंगत ज्योतिषी को होना आवश्यक बताया गया है। उपर्युक्त वाराही संहिता के विवेचन से स्पष्ट है कि पूर्वमध्यकाल के प्रारम्भ में ही ग्रहगणित उन्नति की चरम सीमा पर था। ई. सन् ६०० में इस शास्त्र के साहित्य का निर्माण स्वतन्त्र आकाश-निरीक्षण के आधार पर होने लग गया था। आदिकालीन ज्योतिष के सिद्धान्तों को परिष्कृत किया जाने लगा था । फलित ज्योतिष-पूर्वमध्यकाल में फलित ज्योतिष के संहिता और जातक अंगों का साहित्य अधिक रूप से लिखा गया है। राशि, होरा, द्रेष्काण, नवांश, द्वादशांश; त्रिंशांश, परिग्रहण स्थान, कालबल, चेष्टाबल, ग्रहों के रंग, स्वभाव, धातु, द्रव्य, जाति, चेष्टा, आयुर्दाय, दशा, अन्तर्दशा, अष्टकवर्ग, राजयोग, द्विग्रहादियोग, मुहूर्त विज्ञान, अंगविज्ञान, स्वप्नविज्ञान, शकुन एवं प्रश्नविज्ञान आदि फलित के अंगों का समावेश होरा शास्त्र में होता था । संहिता में सूर्यादि ग्रहों की चाल, उनका स्वभाव, विकार, प्रमाण, वर्ण, किरण, ज्योति, संस्थान, उदय, अस्त, मार्ग, पृथक् मार्ग, वक्र, अनवक्र, नक्षत्र-विभाग और कूर्म का सब देशों में फल, अगस्त्य की चाल, सप्तर्षियों की चाल, नक्षत्र-व्यूह, ग्रहशृंगाटक, ग्रहयुद्ध, ग्रहसमागम, परिवेष, परिघ, वायु, उल्का, दिग्दाह, भूकम्प, गन्धर्वनगर, इन्द्रधनुष, वास्तुविद्या, अंगविद्या, वायसविद्या, अन्तरचक्र, मृगचक्र, अश्वचक्र, प्रासादलक्षण, प्रतिमालक्षण, प्रतिमाप्रतिष्ठा, घृतलक्षण, कम्बललक्षण, खड्गलक्षण, पट्टलक्षण, कुक्कुटलक्षण, कूर्मलक्षण, गोलक्षण, अजालक्षण, अश्वलक्षण, स्त्री-पुरुषलक्षण एवं साधारण, असाधारण सभी प्रकार के शुभाशुभों का विवेचन अन्तर्भूत होता था। कहीं-कहीं पर तो कुछ विषय होरा के-स्वप्न और शकुन संहिता में गर्भित किये गये हैं । इस युग का प्रथमाध्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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