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हुए दिखलाई पड़ते हैं और कक्षाओं की परिधि के अनुसार उनकी दैनिक परिधि भी भिन्न दिखाई पड़ती है, इसलिए नक्षत्र चक्र को भी यह भिन्न समय में-शीघ्रगामी ग्रह थोड़े समय में और मन्दगति अधिक समय में पूरा करते हैं। तात्पर्य यह है कि आकाश में जितने तारे दिखलाई पड़ते हैं, वे सब ग्रहों के साथ पश्चिम की ओर जाते हुए मालूम पड़ते हैं। परन्तु नक्षत्रों के बहुत शीघ्र चलने के कारण ग्रह पीछे रह जाते हैं और पूर्व को चलते हुए दिखलाई पड़ते हैं। इनकी पूर्व की ओर बढ़ने की चाल तो समान है, पर इनकी कक्षाओं का विस्तार भिन्न होने से इनकी गति भी भिन्न देख पड़ती है। इस कथन से ग्रहों की योजनात्मिका और कलात्मिका, दोनों प्रकार की गतियां सिद्ध हो जाती है ।
इस ग्रन्थ में मध्यमाधिकार, स्पष्टाधिकार, त्रिप्रश्नाधिकार, चन्द्रग्रहणाधिकार, सूर्यग्रहणाधिकार, परलेखाधिकार, ग्रहयुत्यधिकार, नक्षत्रग्रहयुत्यधिकार, उदयास्ताधिकार, शृंगोन्नत्यधिकार, पाताधिकार और भूगोलाध्याय नामक प्रकरण हैं।
उपर्युक्त पंचसिद्धान्तों के अतिरिक्त नारदसंहिता, गर्गसंहिता आदि दो-चार संहिता ग्रन्थ और भी मिलते हैं, परन्तु इनका रचनाकाल निर्धारित करना कठिन है । गर्गसंहिता के जो फुटकर प्रकरण उपलब्ध हैं, वे बड़े उपयोगी है, उनसे भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में बहुत कुछ ज्ञात हो जाता है। युगपुराण नामक अंश से उस युग की राजनीतिक और सामाजिक दशा पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस ग्रन्थ की भाषा प्राकृत मिश्रित संस्कृत है, भाषा की दृष्टि से यह ग्रन्थ जैन मालूम पड़ता है। परन्तु निश्चित प्रमाण एक भी नहीं है। ज्योतिषशास्त्र विज्ञानमूलक होने के कारण इसमें समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं। अतएव प्राचीन ग्रन्थों में अनेक संशोधन हुए हैं, इसी कारण किसी भी ग्रन्थ का सबल प्रमाणों के अभाव में रचनाकाल ज्ञात करना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव है।
___ कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ऐसे कई प्रकरण हैं जिनसे पता चलता है कि उस काल में ज्योतिषी हर प्रकार के ज्योतिष-गणित से पूर्ण परिचित थे। तथा ज्योतिषशास्त्र का पर्यवेक्षण आलोचनात्मक ढंग से होने लग गया था। इसके एक-दो स्थल ऐसे भी हैं, जिनमें वसिष्ठ सिद्धान्त और पितामह सिद्धान्त के प्रचार का भी भान होता है । आर्यभट्ट से कुछ पूर्व ऋषिपुत्र नाम के एक ज्योतिर्विद् हुए हैं। इनकी गणितविषयक रचनाएँ तो नहीं मिलती हैं, पर संहिताशास्त्र के यह प्रथम लेखक जेंचते हैं ।
पराशर-नारद और वसिष्ठ के अनन्तर फलित ज्योतिष के सम्बन्ध में महर्षिपद प्राप्त करनेवाले पराशर हुए हैं। कहा जाता है कि "कलो पाराशरः स्मृतः" अर्थात् कलियुग में पराशर के समान अन्य महर्षि नहीं हुए। उनके ग्रन्थ ज्योतिष विषय के जिज्ञासुओं के लिए बहुत उपयोगी हैं। बृहत्पाराशरहोराशास्त्र के प्रारम्भ में बताया है
अर्थकदा मुनिश्रेष्ठं त्रिकालज्ञं पराशरम् । पप्रच्छोपेत्य मैत्रेयः प्रणिपत्य कृताञ्जलिः॥
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__ भारतीय ज्योतिष
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