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पोलिश सिद्धान्त - इसका ग्रहगणित भी अंकों द्वारा स्थूल रीति से निकाला गया है । एलबेरुनी का मत है कि अलकजेण्ड्रियावासी पौलिश के यूनानी सिद्धान्तों के आधार पर इसकी रचना हुई है। डॉ. कर्न साहब ने इस मत का खण्डन किया है । उनका कहना है कि प्राचीन भारतीयों को 'यवनपुर' ज्ञात था, तथा वे वहाँ के अक्षांश, देशान्तर आदि से पूर्ण परिचित थे । वर्तमान में वराह और भट्टोत्पल का पृथक्-पृथक् संग्रहीत पौलिश सिद्धान्त मिलता है, लेकिन दोनों में कोई समानता नहीं है। वराहमिहिर द्वारा संग्रहीत पौलिश सिद्धान्तों में चर निकालने के लिए निम्न श्लोक आया हैयवनावरजा नाढ्यः सप्तावन्त्या विभागसंयुक्ता ।
वाराणस्यां त्रिकृति: साधनमन्यत्र वक्ष्यामि ॥
अर्थात्—उज्जैनी में चर ७ घटी २० पल और बनारस में ९ घटी है, अन्य स्थानों के चर का साधन गणित द्वारा किया गया है । डॉ. थीबो साहब ने इस सिद्धान्त का विवेचन करते हुए बताया है कि प्राचीन पौलिश सिद्धान्त उपलब्ध नहीं है । वराह के पौलिश सिद्धान्त से मालूम पड़ता है कि इसके ग्रहगणित में अति स्थूलता है । आज जो पौलिश के नाम से सिद्धान्त उपलब्ध है, वह अपने मूल रूप में नहीं है । सूर्य सिद्धान्त — इसके कर्ता कोई सूर्य नाम के ऋषि बतलाये जाते हैं । इसमें आयी हुई कथा के आधार पर इसका रचनाकाल त्रेता युग का प्रारम्भिक भाग बताया गया है । पर उपलब्ध सूर्य सिद्धान्त इतना प्राचीन नहीं जँचता है । कुछ लोगों का कथन है कि स्वयं सूर्य भगवान् ने मय की तपस्या से प्रसन्न होकर उस असुर को ज्योतिष ज्ञान दिया था । श्री महावीरप्रसाद श्रीवास्तव ने सूर्य सिद्धान्त की भूमिका में असुर नाम की एक भौतिकवादी जाति बतलायी है, शिल्प और यन्त्रविद्या में यह जाति निपुण होती थी । सूर्य नामक ऋषि ने इसी जाति को ज्योतिषशास्त्र की शिक्षा दी थी । पाश्चात्त्य विद्वानों ने सूर्य सिद्धान्त की स्थूलता का परीक्षण कर इसका रचनाकाल ई. पू. १८० या ई. १०० बताया है । यह ग्रन्थ ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । यद्यपि वर्तमान में उपलब्ध सूर्य सिद्धान्त प्राचीन सूर्य सिद्धान्त से भिन्न हैं, फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि सैद्धान्तिक ग्रन्थों में यह सबसे प्राचीन है । इसमें युगादि से अहर्गण लाकर मध्यम ग्रह सिद्ध किये गये हैं और आगे संस्कार देकर स्पष्टग्रहविधि प्रतिपादित की है । इसके प्रारम्भ में ग्रहों की गति सिद्ध करते हुए लिखा गया है
अर्थात् — शीघ्रगामी नक्षत्रों के साथ सदैव पश्चिम की कक्षा में समान परिमाण में हारकर पीछे रह जाते हैं,
प्रथमाध्याय
पश्चात् व्रजन्तोऽतिजवानक्षत्रः सततं ग्रहाः । जीयमानास्तु कम्पन्ते तुख्यमेव स्वमार्गगाः ॥ प्राग्गतिस्वमतस्तेषां भगणैः प्रत्यहं गतिः । परिणाहवशाद्भिन्नः तद्वशाद्भानि भुञ्जते ॥
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ओर चलते हुए ग्रह अपनी-अपनी इसीलिए वह पूर्व की ओर चलते
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