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विशेषतः शनि और मंगल को अधिक दुष्ट माना है । मंगल लाल रंग का समस्त प्राणियों को अशान्ति देनेवाला और रक्तपात करनेवाला समझा जाता था । केवल गुरु ही शुभ और समस्त प्राणियों को सुख-शान्ति देनेवाला बताया गया है । ग्रहों का शुभ नक्षत्रों के साथ योग होना प्राणियों के लिए कल्याणदायक माना जाता था । उद्योग पर्व के १४३वें अध्याय के अन्त में ग्रह और नक्षत्रों के अशुभ योगों का विस्तार से वर्णन किया गया है । श्रीकृष्ण ने जब कर्ण से भेंट की, तब कर्ण ने इस प्रकार ग्रह स्थिति का वर्णन किया है - " शनैश्चर रोहिणी नक्षत्र में मंगल को पीड़ा दे रहा है, ज्येष्ठा नक्षत्र में मंगल वक्री होकर अनुराधा नामक नक्षत्र से योग कर रहा है । महापातसंज्ञक ग्रह चित्रा नक्षत्र को पीड़ा दे रहा है । चन्द्रमा के चिह्न विपरीत दिखलाई पड़ते हैं और राहु सूर्य को ग्रसित करना चाहता है ।" शल्य-वध के समय प्रातःकाल का वर्णन निम्न प्रकार किया है
भृगुसूनुधरापुत्रौ शशिजेन समन्वितौ ॥ श. प., अ. ११.१८
अर्थात् — शुक्र और मंगल इन दोनों का योग बुध के साथ अत्यन्त अशुभकारक बताया गया है । आज भी बुध और शनि का योग अशुभ माना जाता है । महाभारत में १३ दिन का पक्ष अत्यन्त अशुभ बताया गया है
अर्थात् - व्यास जी अनिष्टकारी ग्रहों की स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि १४, १५ एवं १६ दिनों के पक्ष होते थे, पर १३ दिनों का पक्ष इसी समय आया है तथा सबसे अधिक अनिष्टकारी तो एक ही मास में सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का होना है और यह ग्रहण योग भी त्रयोदशी के दिन पड़ रहा है, अतः समस्त प्राणियों के लिए भयोत्पादक है । महाभारत से यह भी सिद्ध होता है कि उस समय व्यक्ति के सुख-दुख, जीवन-मरण आदि सभी ग्रह-नक्षत्रों की गति से सम्बद्ध माने जाते थे ।
चतुर्दशी पञ्चदशीं भूतपूर्वां तु षोडशीम् । इतु नाभिजानेऽहममावास्यां त्रयोदशीम् ॥ चन्द्रसूर्यावुभौ प्रस्तावेकमासीं त्रयोदशीम् ॥
उपर्युक्त ज्योतिष चर्चा के अतिरिक्त ई. १०० के लगभग स्वतन्त्र ज्योतिष के ग्रन्थ भी लिखे गये, जो रचयिता के नाम पर उन सिद्धान्तों के नाम से ख्यात हुए । वराहमिहिराचार्य ने अपने पंचसिद्धान्तिका नामक संग्रह ग्रन्थ में पितामह सिद्धान्त, वसिष्ठ सिद्धान्त, रोमक सिद्धान्त, पौलिश सिद्धान्त और सूर्य सिद्धान्त इन ५ सिद्धान्तों का संग्रह किया। डॉक्टर थीबो साहब ने पंचसिद्धान्तिका की अँगरेज़ी भूमिका में पितामह सिद्धान्त को सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋक् ज्योतिष के समान प्राचीन बताया है, लेकिन परीक्षण करने पर इसकी इतनी प्राचीनता मालूम नहीं पड़ती है । ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य ने पितामह सिद्धान्त को ही आधार माना है । पितामह सिद्धान्त में सूर्य और चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य ग्रहों का गणित नहीं आया है ।
प्रथमाध्याय
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