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यजु और अथवं ज्योतिष
यजुर्वेद ज्योतिष प्रायः ऋक् ज्योतिष से मिलता-जुलता है। विषय प्रतिपादन में कोई मौलिक भेद नहीं है। अथर्व ज्योतिष में फलित ज्योतिष की अनेक महत्त्वपूर्ण बातें हैं। वास्तव में इन तीनों वेदांग-ज्योतिषों में ज्योतिष का स्वतन्त्र ग्रन्थ यही कहा जा सकता है। विषय और भाषा की दृष्टि से इसका रचनाकाल उक्त दोनों से अर्वाचीन है। इसमें तिथि, नक्षत्र, करण, योग, तारा और चन्द्रमा के बलाबल का सुन्दर निरूपण किया गया है
तिथिरेकगुणा प्रोक्का नक्षत्रं च चतुर्गुणम् । वारश्चाऽष्टगुणः प्रोकः करणं षोडशान्वितम् ॥१९॥ द्वात्रिंशद्गुणो योगस्तारा षष्टिसमन्विता । चन्द्रः शतगुणः प्रोक्तस्तस्माचन्द्रबलावलम् ॥९॥
समीक्ष्य चन्द्रस्य बनावकानि ग्रहाः प्रयच्छन्ति शुभाशुभानि । अर्थात्-तिथि का एक गुण, नक्षत्र के चार गुण, वार के आठ गुण, करण के सोलह गुण, योग के बत्तीस गुण, तारा के साठ गुण और चन्द्रमा के सौ गुण कहे गये हैं। चन्द्रमा के बलाबलानुसार ही अन्य ग्रह शुभाशुभ फल देते हैं। तात्पर्य यह है कि अथर्व ज्योतिष की रचना के समय ज्योतिषशास्त्र का विचार सूक्ष्म दृष्टि से होने लग गया था । इस समय भारतवर्ष में वारों का भी प्रचार हो गया था तथा वाराधिपति भी प्रचलित हो गये थे
आदित्यः सोमो भौमश्च तथा बुधबृहस्पती ।
भार्गवः शनैश्चरश्चैव एते सस दिनाधिपाः ॥१३॥ इसी प्रकार इसमें जातक के जन्म-नक्षत्र को लेकर सुन्दर ढंग से फल बतलाया है
जन्मसंपतिपरक्षेभ्यः प्रत्वरः साधकस्तथा । नैनो मित्रवर्गश्च परमो मैत्र एव च ॥१.३॥ दशमं जन्मनक्षत्रारकर्मनक्षत्रमुच्यते। . एकोनविंशतिं चैव गर्माधानकमुच्यते ॥१०॥ द्वितीयमकादशं विशमेष संपत्करो गणः।। तृतीयमेकविंशं तु द्वादशं तु विपत्करम् ॥१०५॥ क्षेम्यं चतुर्थद्वाविंशं यथा यच्च त्रयोदशम् । प्रत्वरं पञ्चमं विद्यात् त्रयोविंशं चतुर्दशम् ॥१०६॥ साभकं तु चतुर्विशं षष्ठं पञ्चदशं च यत् । नैधनं पञ्चविंशं तु षोडशं सप्तमं तथा ॥१०७॥ मैत्रे सप्तदर्श विद्यात्षड्विंशमिति चाष्टमम् । सप्तविंशं परं मैत्रं नवमष्टादां च यत् ॥१०॥
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मारतीय ज्योतिष
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