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________________ (१) जौ-अश्विनी, (२) द्रा–आर्द्रा, ( ३ ) गः-पूर्वाफाल्गुनी, (४) खे-विशाखा ( ५ ) श्वे-उत्तराषाढ़ा, (६ ) हिः-पूर्वाभाद्रपद, (७) रोरोहिणी, (८) षा-आश्लेषा, (९) चित्-चित्रा, (१०) मू-मूल, (११) शक्-शतभिषक्, (१२) ण्ये-भरणी, (१३) सू-पुनर्वसु, ( १४ ) माउत्तराफाल्गुनी, (१५) धा-अनुराधा, (१६) न-श्रवण, (१७) रे-रेवती, (१८) मृ-मृगशिर, ( १९ ) घा-मघा, ( २० ) स्वा-स्वाति, ( २१ ) पापूर्वाषाढ़ा, ( २२ ) अज-पूर्वाभाद्रपद, ( २३ ) कृ-कृत्तिका, ( २४ ) ष्य-पुष्य, (२५) हा-हस्त, (२६ ) जे-ज्येष्ठा, ( २७ ) ष्ठा-धनिष्ठा । इन नक्षत्रों के देवता भी इन्हीं संकेताक्षरों में बतला दिये गये हैं। विषुवत् की पक्ष और तिथि-संख्या निकालने का नियम इस प्रकार बतलाया है विषुवन्तं द्विरभ्यस्य रूपोनं षड्गुणीकृतम् । पक्षा यदध पक्षाणां तिथिस्स विषुवान् स्मृतः ॥ तात्पर्य यह है कि समान दिन-रात प्रमाणवाला विषुव दिन वर्ष में दो बार आता है । यह अयन के प्रत्येक अर्ध भाग में पड़ता है। आजकल से हिसाब से सायन मेषादि और सायन तुळादि में पड़ता है, पर इसका अर्थ भी वही है जो ऋक् ज्योतिष में अयनार्ध बतलाया है, क्योंकि कर्क से लेकर धनु पर्यन्त दक्षिणायन होता है, इसमें तुला के सायन सूर्य में विषुव दिन पड़ेगा। इसी प्रकार मकर से लेकर मिथुन तक उत्तरायण होता है, इसमें भी मेष के सायन सूर्य में विषुव दिन माना गया है-अर्थात् अयन के अर्ध भाग में ही विषुव दिन पड़ता है, अतएव माघ शुक्ल के आदि से तीन सौर मास के अन्तराल में पहला विषुव दिन पड़ेगा। इसकी गणित प्रक्रिया के लिए राशि की कि-६० सौर मासों में १२४ चान्द्र पक्ष होते हैं तो तीन सौर मास में कितने हुए ? इस प्रकारx.२४ = ३५ यह शेष रखा। दूसरे विषुव में छह सौर मास होंगे, इसलिए अन्तर्गत पक्ष ३६.x3 = ६२ दो विषुवों में क्षेप एक गुणा, तीन में द्विगुणा तथा चार में तिगुना, इस प्रकार इष्ट विषुव में एक कम गुणा क्षेप मानना पड़ेगा । अतः ( वि-१) को पक्षों में गुणा कर देने पर अभीष्ट विषुव संख्या आ जायेगी। अतः अभीष्ट विषुव संख्या = वि-(अन्तर्गत पक्ष )-२ (वि.-१) = ६२ वि. = ६२ इसमें क्षेपक को जोड़ देने पर युगादि से विषुव संख्या आ जायेगी। आर्य ज्योतिष में भी इसी अभिप्राय का एक करणसूत्र आया है। ऋक् ज्योतिष के रचनाकाल तक ग्रह और राशियों का स्पष्ट व्यवहार नहीं होता था। इस ग्रन्थ में नक्षत्रोदय रूप लग्न का उल्लेख अवश्य है, पर उसका फल आजकल के समान नहीं बताया गया है। यदि गणित ज्योतिष की दृष्टि से ऋक् ज्योतिष को परखा जाये तो निराश ही होना पड़ेगा, क्योंकि उसमें गणित ज्योतिष की कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं है। सिर्फ यही कहा जा सकेगा कि यज्ञ-यागादि के समय ज्ञान के लिए नक्षत्र, पर्व, अयन आदि का विधान बताया गया है । प्रथमाध्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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