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देशों के ज्योतिष-वेत्ताओं के साथ रहकर प्रश्नशास्त्र और रमलशास्त्र का परिष्कार कर भारत में प्रचार किया। आदिकाल में ज्योतिष-साहित्य का प्रणयन खूब हुआ है।
आदिकाल (ई. पू. ५०० से ई. ५०० तक)
प्रमुख ग्रन्थ और प्रन्थकारों का संक्षिप्त परिचय ऋक् ज्योतिष
इस काल की सबसे प्रधान और प्रारम्भिक रचना वेदांग-ज्योतिष है। यद्यपि इसके रचनाकाल के सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित हैं, पर भाषा, शैली और विषय के परीक्षण द्वारा ई. पू. ५०० रचनाकाल मालूम पड़ता है। ऋक् ज्योतिष के प्रारम्भ में प्रतिपाद्य विषयों का जिक्र करते हुए बताया गया है
पञ्चसंवत्सरमययुगाध्यक्ष प्रजापतिम् ।। दिनर्वयनमासाशं प्रणम्य शिरसा शुचिः ॥१॥ ज्योतिषामयनं पुण्यं प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वधाः। सम्मतं ब्राह्मणेन्द्राणां यज्ञकालार्थसिद्धये ॥२॥
-अ. ज्यो. श्लो. १-२ अर्थात्- एक युगसम्बन्धी दिवस, ऋतु, अयन, मास और युगाध्यक्ष का वर्णन किया जायेगा। तात्पर्य यह है कि पंचवर्षात्मक युग के अयन-नक्षत्र, अयन-मास, अयन-तिथि, ऋतु प्रारम्भ काल, पर्वराशि, उपादेयपर्व, भांश, योग, व्यतिपात और ध्रुवयोग, मुहूर्त प्रमाण, नक्षत्र देवता, उन तथा क्रूर नक्षत्र, अधिमास, दिनमान, प्रत्येक नक्षत्र का भोग्यकाल, लग्नानयन, चन्द्रर्तुसंख्या, वेधोपाय एवं कलादि लक्षण का संक्षिप्त निरूपण किया गया है । इसमें माघशुक्ला प्रतिपदा को युगारम्भ और पौष कृष्णा अमावास्या को युग समाप्ति बतायी गयी है
__ स्वराक्रमेते सोमाौं यदा साकं सवासवौ।
स्यात्तदादियुर्ग माघस्तपश्शुक्लोऽयनो ख़ुदक् ॥६॥ अर्थात्-जब धनिष्ठा नक्षत्र के साथ सूर्य और चन्द्रमा योग को प्राप्त होते हैं, उस समय युगारम्भ होता है। यह काल माघ शुक्ल प्रतिपत् को पड़ता है। उत्तरायण और दक्षिणायन की चर्चा भी उदयकाल से भिन्न मिलती है। इस युग में आश्लेषार्ध में दक्षिणायन और धनिष्ठादि में उत्तरायण माना गया है। एक युग के नक्षत्र और तिथ्यादि निम्न प्रकार बताये गये हैं।
प्रथमं सप्तमं चाहुरयनाथं त्रयोदशम् । चतुर्थ दशमं चैव द्विर्युग्म बहुलेऽप्यतौ ॥९॥ वसुस्त्वष्टा भवोऽजश्च मित्रस्सोऽश्विनी जलम् । अर्यमार्कोऽयनाचास्स्युरर्धपश्चममास्त्वृतः ॥१०॥
प्रथमाध्याय
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