SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री रजनीकान्त शास्त्री ने सूर्यसिद्धान्त के प्रारम्भ में आयी हुई मय की कथा को रूपक बतलाया है। उनका कथन है कि मय नामक कोई यूनानी इस देश में ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आया था। जब वह इस शास्त्र का मर्मज्ञ होकर अपने यहां गया तो उसी ने इसका वहाँ प्रचार किया। इससे स्पष्ट है कि ई. पू. २००-ई. १०० तक के काल में ही भारतीय ज्योतिष का प्रचार विदेशों में होने लग गया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से पता चलता है कि आदिकाल के ज्योतिषी हर तरह के ज्योतिष और अन्य गणितों से पूर्ण परिचित होते थे। शरीर के फड़कने का क्या अर्थ है, स्वप्न का फल कैसा होता है, विभिन्न प्रकार के शुभकर्मों के करने का शुभ मुहूर्त कौन-सा है, युद्ध किस दिन करना चाहिए, सेनापति कौन हो, जिससे युद्ध में सफलता मिले। इस युग का ज्योतिषी केवल शुभाशुभ समय से ही परिचित नहीं होता था, बल्कि वह प्राकृतिक ज्योतिष के आधार पर हाथी, घोड़ा एवं खड्ग आदि के इंगितों से भावी शुभाशुभ फल का निर्देश करता था। ई. पू. १००-ई. ३०० तक के ज्योतिष-विषयक साहित्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि इस काल में आलोचनात्मक दृष्टि से ज्योतिष का अध्ययन ही नहीं होता था, बल्कि इस शास्त्र के वेत्ताओं की भी आलोचनाएँ होने लग गयी थीं। यह आलोचना का क्षेत्र सीमित नहीं हुआ, किन्तु ईसवी सन् की ५वीं शताब्दी में होनेवाले आर्यभट्ट और लल्ल-जैसे धुरन्धर ज्योतिर्विदों ने सिद्धान्तगणित से हीन ज्योतिषी की खिल्ली उड़ायी है। माण्डवी की निम्न आलोचना प्रसिद्ध है दशदिनकृतपापं हन्ति सिद्धान्तवेत्ता त्रिदिनजनितदोषं तन्त्रविज्ञः स एव । करण-मगगवेत्ता हन्यहोरात्रदोषं जनयति बहुपापं तत्र नक्षत्रसूची ॥ अर्थात्-सिद्धान्तगणित को जाननेवाला दस दिन के किये गये पापों को, तन्त्रगणित का वेत्ता तीन दिन के किये गये पापों को एवं करण और भगण का ज्ञाता एक दिन के किये गये पाप को नष्ट करता है। पर केवल नक्षत्रों का ज्ञाता ज्योतिष के वास्तविक तत्त्वों की अनभिज्ञता के कारण अनेक प्रकार के पापों को उत्पन्न करता है। अभिप्राय यह है कि ईसवी सन् को ४थी और ५वीं सदी में सामान्य ज्योतिषियों की नक्षत्रसूची-मूर्ख तक कहकर निन्दा की जाने लगी थी। ___ आदिकाल के अन्त में भारतीय ज्योतिष ने अनेक संशोधन देखे । ईसवी सन् की ५वीं सदी में होनेवाले आर्यभट्ट ने इस शास्त्र में एक नयी क्रान्ति की। उसने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा अनेक मौलिक सिद्धान्तों के साथ-साथ ग्रहों को स्थिर और पृथ्वी को चल सिद्ध किया तथा इस आधार-स्तम्भ पर ग्रहगणित का निर्माण किया। इधर जैन मान्यता में ऋषिपुत्र, भद्रबाहु और कालकाचार्य ने ज्योतिष के अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को ग्रन्थ रूप में निबद्ध किया। कालकाचार्य के सम्बन्ध में आयी हुई एक कथा से प्रकट होता है कि इन्होंने विदेशों में भ्रमण किया था तथा अन्य भारतीय ज्योतिष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy