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________________ करते हुए लिखा है कि ईसवी सन् से कुछ शताब्दी पूर्व प्रचलित उक्त विषयों के सिद्धान्त स्थूल हैं । आकाश निरीक्षण की प्रणाली का आविष्कार इस समय तक हुआ प्रतीत नहीं होता है, लेकिन इस कथन के साथ इतना स्मरण और रखना होगा कि वेदांग - ज्योतिष की रचना यज्ञ-यागादि के समय-विधान के लिए ही हुई थी, ज्योतिष-तत्त्वों के प्रतिपादन के लिए नहीं । वेदांग - ज्योतिष के आस-पास में रचे गये जैन ज्योतिष के ग्रन्थ सूर्य-प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बू द्वीपप्रज्ञप्ति और ज्योतिषकरण्डक इस विषय के स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं, इसके अतिरिक्त कल्पसूत्र, निरुक्त, व्याकरण, स्मृतियाँ, महाभारत और जीवाभिगम सूत्र आदि ईसवी सन् से सैकड़ों वर्ष पूर्व रचित ग्रन्थों में फुटकर रूप से ज्योतिष की अनेक चर्चाएँ आयी हैं । इस काल की वैदिक ज्योतिष मान्यता में दक्षिण और उत्तर ध्रुवों में बँधा हुआ भचक्र प्रवह वायु द्वारा भ्रमण करता हुआ स्वीकार किया गया है। लेकिन जैन मान्यता में सुमेरु को केन्द्रमान ग्रहों के भ्रमण मार्ग को बताया है । सूर्यप्रदक्षिणा की गति उत्तरायण और दक्षिणायन इन दो भागों में विभक्त है और इन अयनों की वीथियाँगमनमार्ग १८४ हैं, जो सुमेरु की प्रदक्षिणा के रूप में गोल किन्तु बाहर की ओर विस्तृत हैं । इन मार्गों की चौड़ाई योजन है तथा एक मार्ग से दूसरे मार्ग का अन्तराल लगभग दो योजन बताया गया है । इस प्रकार कुल मार्गों की चौड़ाई और अन्तरालों का प्रमाण ५१० से कुछ अधिक है, जो कि ज्योतिष में योजनात्मक सूर्य का भ्रमण - मार्ग कहा गया है । तात्पर्य यह कि सूर्य उत्तर-दक्षिण ५१० योजन के लगभग ही चलता है । निष्कर्ष यह है कि ई. पू. ५००-४०० में भारतीय ज्योतिष में ग्रहभ्रमण के दो सिद्धान्त प्रचलित थे । पहला स्कूल वह था जो पृथ्वी को केन्द्र मानकर प्रवह वायु के कारण ग्रहों का भ्रमण स्वीकार करता था और दूसरा वह था जो सुमेरु को केन्द्र मानकर स्वाभाविक रूप से ग्रहों का गमन मानता था । भारतीय ज्योतिष के ईसवी पूर्व ५वीं शताब्दी के साहित्य का इस युग में ज्योतिष ने वेदांगों में प्रारम्भ में इस शास्त्र का प्राधान्य निरीक्षण करने पर ज्ञात होगा कि कर लिया था । वेदांग ज्योतिष के कहा है ५६ यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा । वद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्धनि स्थितम् ॥ इस युग में ज्योतिष को ज्ञानरूपी शरीर का नेत्र कहा गया है अर्थात् नेत्रों के अभाव में जैसे शरीर अपूर्ण और व्यर्थ है उसी प्रकार ज्योतिषज्ञान के बिना अन्य विषयों का ज्ञान अपूर्ण और अनुपयोगी है। इस युग के ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान को व्यवहारोपयोगी होने के साथ-साथ आत्मकल्याणकारी भी माना गया है । आचार्य गर्ग ने कहा है भारतीय ज्योतिष Jain Education International सूक्ष्म दृष्टि से श्रेष्ठ स्थान प्राप्त दिखलाते हुए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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