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मानव अपने भाव और विचारों को केवल अपने तक ही सीमित नहीं रखता था, बल्कि वह उन्हें दूसरे तक पहुँचाने के लिए कटिबद्ध था। उदयकाल में वेद, ब्राह्मणादि ग्रन्थ ज्ञान सामान्य को लेकर चले थे तथा उनके प्रतिपाद्य विषय का लक्ष्य भी एक था, लेकिन इस युग में ज्ञानभाण्डार की अभिव्यक्ति का मापदण्ड ऊँचा उठा; फलतः ज्योतिष-साहित्य का विकास भी स्वतन्त्र रूप से हुआ। यज्ञों के तिथि, मुहूर्तादि स्थिर करने में इस विद्या की नितान्त आवश्यकता पड़ती थी, इसलिए इस विषय का अध्ययन आदिकाल में व्यापक रूप से हुआ। ई. पू. १००-ई. स. २०० के साहित्य से ज्ञात होता है कि आदिकाल में ज्योतिष का साहित्य केवल ग्रहनक्षत्र विद्या तक ही सीमित नहीं था, प्रत्युत धार्मिक, राजनीतिक एवं सामाजिक विषय भी इस शास्त्र के आलोच्य विषय बन गये थे तथा उदयकाल में विशृंखलित रूप से प्रचलित ज्योतिष-मान्यताओं के संकलन वेदांग-ज्योतिष के रूप में आरम्भ हो गया था।
वेदांग-ज्योतिष के रचनाकाल के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं। प्रो. मैक्समूलर ने इसका रचनाकाल ई. पू. ३००, प्रो. वेवर ने ई. पू. ५००, कोलबुक ने ई. पू. १४१० और प्रो. ह्विटनी ने ई. पू. १३३८ बतलाया है। गणित क्रिया करने से वेदांग-ज्योतिष में प्रतिपादित अयन ई. पू. १४०८ में आता है। क्योंकि ई. पू. ५७२ में रेवती तारा सम्पाती तारा मानी गयी है। इस समय उत्तराषाढ़ा के प्रथम चरण में उत्तरायण माना गया है, लेकिन वेदांग ज्योतिष के निर्माणकाल में धनिष्ठारम्भ में उत्तरायण माना जाता था। अर्थात् १ नक्षत्र- २३ अंश २० कला का अयनान्तर पड़ता है । सम्पात की गति प्रतिवर्ष ५० कला है, अतः उक्त अन्तर १६८० वर्ष में पड़ेगा। अतएव १६८० - ५७१ = ११०८। विभागात्मक धनिष्ठारम्भी ३०० वर्ष और जोड़ देने पर ११०८+ ३०० = १४०८ वर्ष हुए। इस गणना के हिसाब से वेदांग-ज्योतिष का रचनाकाल ई. पू. १४०८ हुआ।
निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर मानना पड़ेगा कि वेदांग-ज्योतिष में प्रतिपादित तत्त्व अवश्य प्राचीन है, पर भाषा आदि कुछ चीजें ऐसी हैं जिससे इसका संकलनकाल ई. पू. ५०० वर्ष से पहले मानना उचित नहीं जंचता।
वेदांग-ज्योतिष में ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद ज्योतिष ये तीन ग्रन्थ माने जाते हैं । प्रथम के संग्रहकर्ता लगध नाम के ऋषि है, इसमें ३६ कारिकाएँ हैं। यजुर्वेद ज्योतिष में ४९ कारिकाएँ हैं, जिनमें ३६ कारिकाएँ तो ऋग्वेद ज्योतिष की हैं, और १३ नयी आयी हैं। अथर्व ज्योतिष में १६२ श्लोक हैं। इन तीनों ग्रन्थों में फलित की दृष्टि से अथर्व ज्योतिष महत्त्वपूर्ण है।
आलोचनात्मक दृष्टि से वेदांग-ज्योतिष में प्रतिपादित ज्योतिष मान्यताओं को देखने से ज्ञात होगा कि वे इतनी अविकसित और आदि रूप में हैं जिससे उनकी समीक्षा करना दुष्कर है। डॉ. जे. वर्गस ने 'नोट्स ऑन हिन्दू एस्ट्रोनामी' नामक पुस्तक में वेदांग ज्योतिष के अयन, नक्षत्रगणना, (ग्न-साधन आदि विषयों की आलोचना
प्रथमाध्याय
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