________________
यह भी है कि आज हमारा प्राचीन सभी साहित्य उपलब्ध भी नहीं है। सम्भवतः जिस ग्रन्थ में राशियों का विवेचन किया गया हो, वह ग्रन्थ नष्ट हो गया हो या किसी प्राचीन ग्रन्थागार में पड़ा अन्वेषकों की बाट जोह रहा हो।
कोई भी निष्पक्ष ज्योतिष का विद्वान् उदयकाल के अन्य ज्योतिष-सिद्धान्तों के विवरणों को देखकर यह मानने को तैयार नहीं होगा कि उस काल में राशियों का प्रचार नहीं था अथवा भारतीय लोग राशिज्ञान से अपरिचित थे। आदिकालीन वेदांगज्योतिष और ज्योतिष्करण्डक में लग्न का सुस्पष्ट वर्णन है। कुछ लोग चाहे उसे नक्षत्रलग्न माने या चाहे राशिलग्न; पर इतना तो मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा कि उदयकाल में राशियों का प्रचार था। साहित्य के अभाव में राशियों के ज्ञान के अभाव को नहीं स्वीकार किया जा सकता है।
ग्रहण-विचार
ऋग्वेद संहिता के ५वें मण्डलान्तर्गत ४०वें सूत्र में सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का वर्णन मिलता है। इस स्थान पर ग्रहणों की उपद्रव-शान्ति के लिए इन्द्र आदि देवताओं से प्रार्थनाएँ की गयी हैं। ग्रहण लगने का कारण राहु और केतु को ही माना गया है।
___ समवायांग के १५वें समवाय के ३रे सूत्र में राहु के दो भेद बतलाये हैंनित्यराहु और पर्वराहु । नित्यराहु को कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष का कारण तथा पर्वराहु को चन्द्रग्रहण का कारण माना है। केतु, जिसका ध्वजदण्ड सूर्य के ध्वजदण्ड से ऊँचा है, अतः भ्रमणवश यही केतु सूर्य ग्रहण का कारण होता है। अभिप्राय यह है कि सूर्यग्रहण और चन्द्र ग्रहण की मीमांसा भी उदय काल में साहित्य के अन्तर्गत शामिल हो गयी थी। विषुव और दिनवृद्धि का विचार
वेदों में दिनरात्रि की समानता का द्योतक विषुव कहीं नहीं आया है। लेकिन तैत्तिरीय ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में विषुव का कथन किया गया है
__ यथा वै. पुरुष एवं विषुवांस्तस्य यथा दक्षिणोध एवं पूर्वार्धा विषुवन्तो यथोत्तरोधों एवमुत्तरो| विषुवंतस्तस्मादुत्तरे इस्याचक्षते प्रबाहुक्सतः शिर एव विषुवान् ।
-ऐ. ब्रा. १८. २२ अर्थात्-इस मन्त्र में विषुव को पुरुष की उपमा दी गयी है। जिस प्रकार पुरुष के दक्षिणांग और वामांग होते हैं इसी प्रकार विषुवान् संवत्सर का सिर है और उससे आगे-पीछे आनेवाले छह-छह महीने दक्षिण और वामांग हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा है
प्रथमाध्याय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org