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________________ की गति तेज़ होने के कारण बृहस्पति पीछे रह जाता है और शुक्र पूर्व की ओर आगे बढ़ जाता है । इस गमन का फल यह होता है कि शुक्र पूर्व की ओर उदित होता है और उसी काल में बृहस्पति पश्चिम की ओर अस्त को प्राप्त होता है । इस अस्त मौर उदय की व्यवस्था के पूर्व इतना निश्चित है कि कुछ समय तक दोनों साथ रहते । इस परिस्थिति के अध्ययन से वैदिक साहित्य में गुरु को ग्रह माना गया हो, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । उदयकाल में शुक्र और गुरु ग्रह माने जाते थे, इस कल्पना पर निम्न मन्त्र से सुन्दर प्रकाश पड़ता है ईर्मान्यद्वपुषे वपुश्चक्रं रथस्य येमथुः । पर्यन्या नाहुषा युगा महा रक्षांसि दीयथः ॥ अर्थ - हे अश्विन, तुमने अपने रथ के एक तेजस्वी चक्र को के लिए रख दिया है और दूसरे चक्र से तुम लोक के चारों मन्त्र में एक तेजस्वी चक्र को सूर्य के पास रख दिया है, इससे है और दूसरे चक्र गुरु का ग्रहण किया गया है । निरुक्त में 'अश्विनी' की गणना की गयी है और उनकी स्तुति का काल बताया गया है । ऋग्वेद में एक स्थान पर 'अश्विनी' का सम्बन्ध उषा से बतलाया है । निरुक्त और ऋग्वेद की इस चर्चा का ज्योतिर्दृष्टिकोण से विश्लेषण किया जाये तो ज्ञात होगा कि 'अश्विनी' गुरु और शुक्र ये दो ग्रह हैं, अन्य कोई देव नहीं । ऋग्वेद संहिता के ४थे मण्डल के ५० वें सूक्त में गुरु के सम्बन्ध में स्वतन्त्र कल्पना भी मिलती है । इस कल्पना का तैत्तिरीय ब्राह्मण के निम्न मन्त्र से भी समर्थन होता है - ऋ. सं. ५. ७३.३ सूर्य को शोभायमान करने ओर घूमते हो । उपर्युक्त शुक्र का ग्रहण किया गया स्थानीय देवताओं में अर्धरात्रि के बाद का बृहस्पतिः प्रथमं जायमानाः । तिष्यं नक्षत्रमपि संबभूव ॥ -त. ब्रा. ३. १. १. अर्थात् - बृहस्पति प्रथम तिष्य नक्षत्र से उत्पन्न हुआ था । इसका परम शर १ अंश ३० कला था, इसलिए २७ नक्षत्रों में से इसके निकट पुष्य, मघा, विशाखा, अनुराधा, शतभिष और रेवती थे । गुरु और तिष्य - पुष्य नक्षत्र का योग इतना निकट है कि दोनों का भेद निर्धारण करना कठिन है, इसी से पुष्य नक्षत्र से गुरु की उत्पत्ति हुई, यह कल्पना प्रसूत हुई होगी । पुष्य नक्षत्र का स्वामी भी गुरु माना गया है, अतएव सिद्ध होता है कि उदयकाल में गुरु की गति का ज्ञान था, इससे उसका ग्रहत्व स्वयं सिद्ध है । ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से उदयकाल के अन्तिम भाग में ग्रहों के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं द्वारा विचार होने लग गया था। ठाणांग में अंगारक, व्याल, लोहिताक्ष, शनैश्चर, कनक, कनक - कनक, कनकवितान, कनकसंतानक, सोमसहित, आश्वासन, प्रथमाध्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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