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ग्रहविचार
यों तो वैदिक साहित्य में स्पष्ट रूप से ग्रहों का उल्लेख नहीं मिलता है । केवल सूर्य और चन्द्रमा का उल्लेख प्रायः सर्वत्र पाया जाता है, पर ये भी ग्रह रूप में माने गये प्रतीत नहीं होते हैं। स्थान-स्थान पर देवता के रूप में इनसे प्रार्थनाएँ की गयी हैं । ऋग्वेद के निम्न मन्त्र से ग्रहों के सम्बन्ध में पर्याप्त ज्ञान हो जाता है
अमी ये पञ्चोक्षणो मध्ये तस्थुमहो दियः । देवत्रा नु प्रवाच्यं सध्रोचीनानि वावृतुवित्तं मे भस्य रोदसी ॥
-ऋ. सं. १. १०५, १० अर्थात्-ये महाप्रबल पाँच [ देव ] विस्तीर्ण धुलोक के मध्य में रहते हैं, मैं उन देवों के सम्बन्ध में स्तोत्र तैयार करना चाहता हूँ। वे सब एक साथ आनेवाले थे, लेकिन आज वे सब निकल गये।
इस मन्त्र में देव शब्द प्रकट रूप से नहीं आया है। फिर भी पूर्वापर सन्दर्भ से उसका अध्याहार करना ही पड़ता है। यहाँ जो एक साथ आनेवाले इस पद का प्रयोग किया गया है, इससे भौमादि पाँच ग्रह सिद्ध होते हैं । क्योंकि भौमादि पाँच ग्रह आकाश में कभी-कभी एक साथ भी दिखलाई पड़ते हैं । यदि 'दिङ्मध्ये' पद का अर्थ दिनमध्ये किया जायेगा तो दोष आयेगा, क्योंकि दिन में सब ग्रह दिखाई नहीं देते; बल्कि अस्तंगत ग्रह को छोड़कर शेष सभी ग्रह रात्रि में दिखलाई पड़ते हैं। वेदमन्त्रों में देव शब्द का अर्थ सृष्टि-चमत्कार और प्रत्यक्ष तेज ही माना गया है; अतएव उपर्युक्त मन्त्र में देव शब्द का तात्पर्य देव-विशेष नहीं, प्रत्युत धात्वर्थ की अपेक्षा चमत्कार या प्रकाश है । अतएव सुस्पष्ट है कि प्रकाशयुक्त पांच ग्रह भौमादि ग्रह ही हैं। इसका अन्य कारण यह भी है कि वेदों में अश्विनी आदि दो देव अथवा द्वादश देव या तैंतीस देवों का ही उल्लेख मिलता है । पाँच देव कहीं भी देवरूप में नहीं आये हैं। ऋग्वेद के १०वें मण्डल के ५५वें सूक्त में भी पाँच देवों का अर्थ पांच ग्रह ही लिया गया है। वहाँ उन पाँच देवों का घर नक्षत्रमण्डल में बताया है, इससे सिद्ध है कि पाँच देव भौमादि पाँच ग्रहों के ही द्योतक हैं।
एक बात यह भी है कि उदयकाल में प्रकाशमान शुक्र और गुरु भारतीयों की दृष्टि से ओझल नहीं रहे होंगे। उस समय उन दोनों का साधारण ज्ञान ही नहीं होगा, किन्तु उनके सम्बन्ध में विशेष बात भी जानते होंगे। शुक्र का ज्ञान उस समय विशेष रूप से था। ऋग्वेद के कई मन्त्रों से ध्वनित होता है कि प्रति बीस मास में नौ मास शुक्र प्रातःकाल में पूर्व दिशा की ओर दिखलाई पड़ता था, जिससे ऋषिगण स्नान, पूजा आदि के समय को ज्ञात कर अपने दैनिक कार्यों को सम्पन्न करते थे। वे उसे प्रकाशमान नक्षत्र नहीं समझते थे, बल्कि उसे ग्रह के रूप में मानते थे । वैदिक साहित्य से यह भी पता लगता है कि दो-तीन महीने तक बृहस्पति शुक्र के पास ही भ्रमण करता था। इन दो-तीन महीनों में कुछ दिन तक शुक्र के बहुत नज़दीक रहता है, परन्तु शुक्र
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