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द्वार; अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित् और श्रवण ये सात नक्षत्र पश्चिम द्वार एवं धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवतो, अश्विनी और भरणी ये सात नक्षत्र उत्तर द्वारवाले हैं।
ठाणांग में चन्द्रमा के साथ स्पर्शयोग करनेवाले नक्षत्रों का कथन करते हुए बताया गया है कि
भट्ट नक्खत्ताणं चेदेणसद्धि पमड्ढे जोगं जोएइ तं कत्तिया रोहिगो पुणव्वसु महा चित्ता विसाहा अणुराहा जिट्ठा ।
-ठा. अं. ठा. सू. १०० अर्थात्-कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा ये आठ नक्षत्र स्पर्श योग करनेवाले हैं। इस योग का फल भी तिथि के हिसाब से बताया गया है। इसी प्रकार नक्षत्रों की अन्य संज्ञाएँ तथा उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूर्व दिशा की ओर से चन्द्रमा के साथ योग करनेवाले नक्षत्रों के नाम और उनके फल विस्तारपूर्वक बताये गये हैं।
उदयकाल के समग्र साहित्य पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि इस युग में नक्षत्रज्ञान की इतनी उन्नति हुई थी जिससे नक्षत्रों की ताराएँ और उनके आकार भी विचार के विषय बन गये थे। हस्त नक्षत्र की पाँच ताराएँ हाथ के आकार की हैं, जिस प्रकार हाथ में पांच अँगुलियाँ होती हैं उसी प्रकार हस्त की पाँच ताराएँ भी । तैत्तिरीय ब्राह्मण में नक्षत्रों की आकृति प्रजापति के रूप में मानी गयी है
___ यो वै नक्षत्रियं प्रजापतिं वेद । उभयोरेनं लोकयोर्विदुः । हस्त एवास्य हस्तः । चित्रा शिरः । निष्टया हृदयं । अरू विशाखे। प्रविष्टानुराधाः । एष वै नक्षत्रियः प्रजापतिः ।
-तै. बा. १. ५. २ अर्थात्-नक्षत्ररूपी प्रजापति का चित्रा सिर, हस्त हाथ, निष्टया-स्वाति हृदय, विशाखा जंघा एवं अनुराधा पाद हैं । इसी ग्रन्थ में एक स्थान पर आकाश को पुरुषाकार माना गया है। इस पुरुष का स्वाति हृदय बताया गया है । शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मण में नक्षत्रों की आकृति का बड़ा सुन्दर विवेचन है। इन ग्रन्थों से सुस्पष्ट सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में नक्षत्रविद्या का भारत में अधिक विकास था। इसके प्रभाव
और गुणों का वर्णन भी अथर्ववेद के कई मन्त्रों में मिलता है। शतपथ ब्राह्मण के एक मन्त्र में बतलाया गया है कि सप्तर्षि नक्षत्रपुंज जाज्वल्यमान नक्षत्रपुंज है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के कुछ मन्त्रों में अग्न्याधान, विशेष यज्ञ एवं अन्य धार्मिक कृत्यों के लिए शुभाशुभ नक्षत्रों का कथन किया गया है । अतएव स्पष्ट है कि उदयकाल में नक्षत्रविद्या उन्नति की चरम सीमा पर थी, इसीलिए इस युग में ज्योतिष का अर्थ नक्षत्रविद्या किया जाता था। वाजसनेयी संहिता और सूयगडांग की ज्योतिषचर्चा से उपयुक्त कथन की पुष्टि सम्यक् प्रकार हो जाती है ।
प्रथमाध्याय
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