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________________ इसी प्रकार तैत्तिरीय श्रुति में नक्षत्रों के नाम, उसके देवता, वचन और लिंग भी बताये गये हैं। इसके अनुसार कृत्तिका का अग्नि देवता, स्त्रीलिंग और बहुवचन; रोहिणी का प्रजापति देवता, स्त्रीलिंग और एकवचन; मृगशिर का सोम देवता, नपुंसक लिंग और एकवचन; आर्द्रा का रुद्र देवता, स्त्रीलिंग और एकवचन; पुनर्वसु का आदित्य देवता, पुल्लिग और द्विवचन; तिष्य या पुष्य का बृहस्पति देवता, पुल्लिग और एकवचन; आश्लेषा का सर्प देवता, स्त्रीलिंग और बहुवचन; मघा का पितृ देवता, स्त्रीलिंग और बहुवचन; पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी का भग देवता, स्त्रीलिंग और द्विवचन; हस्त का सविता देवता, पुल्लिग और एकवचन; चित्रा का इन्द्र देवता, स्त्रीलिंग और एकवचन; स्वाति या निष्ट्या का वायु देवता, स्त्रीलिंग और एकवचन; विशाखा का इन्द्राग्नि देवता, स्त्रीलिंग और द्विवचन; अनुराधा का मित्र देवता, स्त्रीलिंग और बहुवचन; ज्येष्ठा का इन्द्र देवता, स्त्रीलिंग और एकवचन; मूल, विवृती या मूलबहिणी का निऋति देवता, स्त्रीलिंग और एकवचन; आषाढा या पूर्वाषाढा का अप् देवता, स्त्रीलिंग और बहुवचन; आषाढा या उत्तराषाढा का विश्वेदेव देवता, स्त्रीलिंग और बहुवचन; अभिजित् का ब्रह्म देवता, नपुंसक लिंग और एकवचन; श्रवण या श्रोणा का विष्णु देवता, स्त्रीलिंग और एकवचन; श्रविष्ठा का वसु देवता, स्त्रीलिंग और बहुवचन; शतभिषक् का इन्द्र या वरुण देवता, पुल्लिग और एकवचन; प्रौष्ठपद या पूर्वप्रोष्ठपद का अज-एकपाद देवता, पुल्लिग और बहुवचन; प्रोष्ठपद या उत्तरप्रोष्ठपद का अहिर्बुध्न्य देवता, पुल्लिग और बहुवचन; रेवती का पूषा देवता, स्त्रीलिंग और एकवचन; अश्वियुज् या अश्विनी का अश्विन देवता, स्त्रीलिंग और द्विवचन एवं भरणी का यम देवता, स्त्रीलिंग और बहुवचन बताया है । इसी स्थान पर नक्षत्रों के फलाफलों का सुन्दर विवेचन किया है। शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय संहिता में भी यही क्रम मिलता है। उदयकाल के अन्तिम भाग में नक्षत्रों के फलाफल में पर्याप्त विकास हो गया था। अथर्ववेद में मूल नक्षत्र में उत्पन्न बालक की दोष-शान्ति के लिए अग्नि आदि देवताओं से प्रार्थनाएँ की गयी हैं ज्येष्ठन्यां जातो विचतोयमस्य मूलवहणात् परिपालयेनम् । ___अत्येन नेषदुरितानि विश्वा दीर्घायुस्वाय शतशारदाय ॥ इस मन्त्र में एक मूलसंज्ञक नक्षत्रों में जात बालक के दोष को दूर करने एवं उसके कल्याण के लिए अग्निदेव से प्रार्थना की गयी है। उदयकाल में नक्षत्रों का जितना परिज्ञान भारतीयों को था उतना अन्य देशवासियों को नहीं। वाजसनेयी संहिता में 'प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्श यादसे गणक' सूक्ति आयो है । इसमें प्रयुक्त नक्षत्रदर्श और गणक ये दो शब्द बहुत उपयोगी हैं, इनसे प्रकट होता है कि उदयकाल में ज्योतिष की मीमांसा शास्त्रीय दृष्टि से की जाने लगी थी। प्रश्नव्याकरणांग में नक्षत्रों के फलों का विशेष ढंग से निरूपण करने के लिए इनका कुल, उपकुल और कुलोपकुलों में विभाजन कर वर्णन किया गया है प्रथमाध्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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