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तो वैदिक काल में वर्ष के चान्द्र और सौर ये दो भेद भी प्रकट हो गये थे। लेकिन नाक्षत्र, बार्हस्पत्य आदि विभिन्न प्रकार के वर्ष नहीं माने जाते थे। इस काल के ऋषि मधु और माधव आदि मासों को भी सौर मास के रूप में ही मानते थे, क्योंकि वर्षारम्भ सौरमासकालिक था।
। वैसे तो मासों की गणना चान्द्र मास के अनुसार भी मिलती है तथा सौर और चान्द्र के समन्वय करने के लिए प्रत्येक तीसरे वर्ष एक अधिकमास भी जोड़ा जाता था । उस समय की व्यावहारिक वर्ष-प्रणाली आजकल की वर्ष-प्रणाली से भिन्न थी। युग वर्षों के क्रमानुसार प्रत्येक वर्ष का नाम भी पृथक्-पृथक् होता था।
ठाणांग और प्रश्नव्याकरणांग में सायन सौर वर्ष का कथन मिलता है। समवायांग में चान्द्र वर्ष की दिन-संख्या ३५४ से कुछ अधिक बतलायी गयी है। ६३वें समवाय में चान्द्र वर्ष की उत्पत्ति का कथन भी किया गया है। इस प्रकार उदयकाल में वर्ष के सम्बन्ध में शास्त्रीय दृष्टि से मीमांसा की गयी है । युगविचार
ऋग्वेद में काल-मान का द्योतक युग शब्द कई स्थानों में आया है, लेकिन कल्प शब्द का प्रयोग इस अर्थ में कहीं पर भी दिखलाई नहीं पड़ता है। ऋग्वेद में युग के सम्बन्ध में कहा है
तदूचुषे मानुषेमा युगानि कीतन्यं मघवा नाम बिभ्रत् । उपप्रमंदस्युहत्याय वज्री युद्ध सूनुः श्रवसे नाम दधे ॥
-ऋ. स. १. १०३-४ इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए सायणाचार्य ने लिखा है
"मनुष्याणां संबन्धीनि इमानि दृश्यमानानि युगानि अहोरात्रसंघनिष्पाद्यानि कृतत्रेतादीनि सूर्यास्मना निष्पादयतीति शेषः"
अर्थात्-सतयुग, त्रेतादि युग शब्द से ग्रहण किये गये हैं। इससे स्पष्ट है कि वेदों के निर्माण-काल में सतयुग, त्रेतादि का प्रचार था। ऋग्वेद के निम्न मन्त्र से युग के सम्बन्ध में एक नया प्रकाश मिलता है
दीर्घतमा मामेतयो जुजुर्वान् दशमे युगे।
अपामथं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः ॥-. स. १. १५८. १
अर्थात्-इस मन्त्र में एक आख्यायिका आयी है, उसमें कहा गया है कि ममता के पुत्र दीर्घतम नाम के महर्षि अश्विन के प्रभाव से अपने दुःखों से छूटकर स्त्री-पुत्रादि कुटुम्बियों के साथ दस युग पर्यन्त सुख से जीवित रहे । यहाँ दस युग शब्द विचारणीय है। यदि पाँच वर्ष का युग माना जाये, जैसा कि आदिकाल में प्रचलित था, तो ऋषि की आयु ५० वर्ष की आती है, जो बहुत थोड़ी प्रतीत होती है और यदि दस वर्ष का युग माना जाये तो १०० वर्ष की आयु आती है। वैदिक काल ४२
मारतीय ज्योतिष
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