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जैन ग्रन्थों में विस्तार से उत्तरायण और दक्षिणायन की व्यवस्था बतलाते हुए लिखा है कि जम्बूद्वीप के मध्य में सुमेरु पर्वत है । सूर्य, चन्द्र आदि समस्त ज्योतिर्मण्डल इस पर्वत की परिक्रमा किया करता है । सूर्य प्रदक्षिणा की गति उत्तरायण और दक्षिणायन इन भागों में विभक्त है और इनकी वीथियाँ - गमन मार्ग १८३ हैं, जो सुमेरु की प्रदक्षिणा के रूप में गोल, किन्तु बाहर की ओर फैलते हुए हैं । इन मार्गों की चौड़ाई योजन है तथा एक मार्ग से दूसरे मार्ग का अन्तर दो योजन बताया गया है । इस प्रकार कुल मार्गों की चौड़ाई और अन्तरालों का प्रमाण ५१० योजन है, जो कि ज्योतिषशास्त्र की परिभाषा में चार क्षेत्र कहलाता है । ५१० योजन में से १८० योजन चार क्षेत्र जम्बूद्वीप में और अवशेष ३३० योजन लवण समुद्र में है । सूर्य एक मार्ग को दो दिन में पूरा करता है, जिससे ३६६ दिन या एक वर्ष पूरा करने में लगते हैं । सूर्य जब जम्बूद्वीप के अन्तिम आभ्यन्तर मार्ग से लवण - समुद्र की ओर जाता है, तब बाह्य लवण समुद्र के के काल को दक्षिणायन और जब सूर्य लवण - समुद्र के हुआ आभ्यन्तर जम्बूद्वीप की ओर आता है उसे उत्तरायण कहते हैं । अतएव स्पष्ट है कि उदयकाल की अन्तिम शताब्दियों में उत्तरायण और दक्षिणायन का ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से सूक्ष्म विचार होने लग गया था । भारतीय आचार्यों ने इस विषय को आगे खूब पल्लवित और पुष्पित किया ।
बाहर की ओर निकलता हुआ अन्तिम मार्ग पर चलने तक अन्तिम मार्ग से भ्रमण करता
वर्षविचार
ऋग्वेद में वर्ष के वाचक शरद् और हेमन्त शब्द आये हैं, वहाँ इन शब्दों का अर्थ ऋतु न मान संवत्सर बताया गया है । गोपथ ब्राह्मण में वर्ष के लिए हायन शब्द आया है । वाजसनेयी संहिता में वर्ष के लिए समा शब्द व्यवहृत हुआ है । वर्ष की दिनसंख्या ३५४ अथवा ३६५ मानी गयी है । शतपथ ब्राह्मण में आजकल के अर्थ में वर्ष शब्द का व्यवहार किया गया है । ऋग्वेद के १० वें मण्डल में 'समानां मास आकृति:' इस मन्त्र में समा शब्द के द्वारा ही वर्ष शब्द का प्रतिपादन किया गया है । वैदिक काल सायन वर्ष ग्रहण किया जाता था, यह सायन या सौर वर्ष की प्रणाली ई. पू. ५०० तक पायी जाती है | आदिकाल में निरयन वर्ष का विचार भी होने लग गया था । वर्ष या संवत्सर की व्युत्पत्ति करते हुए शतपथ ब्राह्मण में लिखा है
ऋतुभिर्हि संवत्सरः शक्नोति स्थातुम् ।
-श. ब्रा. ६. ७. १. १८
अर्थात् 'संवसन्ति ऋतवः यत्र' की गयी है । तात्पर्य यह कि जिसमें ऋतुएँ वास करती हों वह वर्ष या संवत्सर कहलाता है ।
वर्ष का आरम्भ कब होता था, इस सम्बन्ध में ऋग्वेद में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, परन्तु यजुर्वेद में वसन्तारम्भ में वर्षारम्भ कहा गया है । उदयकाल की अन्तिम शताब्दियों में दक्षिणायन के प्रारम्भिक दिन से भी वर्षारम्भ माना जाने लगा था । यों
प्रथमाध्याय
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