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का समन्वय करने के लिए एक अधिकमास-मलमास जोड़ा करते थे। एक स्थान पर ऋग्वेद में वर्ष के १२ माह, ३६० दिन और ७२० रात्रि-दिन-३६० रात्रि + ३६० दिन का वर्णन करते हुए लिखा है
द्वादश प्रवयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तश्चिकेत । यस्मिन्साकं त्रिशता न शंकवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः।
-ऋक्, सं. १, १६४, १८ मास-विचार
तैत्तिरीय संहिता में १२ महीनों के नाम मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभस् , नभस्य, इष, ऊर्ज, सहस, सहस्य, तपस् एवं तपस्य आये हैं। इसी प्रकरण में संसर्प अधिमास का द्योतक और अहस्पति क्षयमास का द्योतक भी आया है। पद्य निम्न प्रकार है
मधुश्च माधवश्च शुक्रश्च शुचिश्च नमश्च नमस्यश्चेषश्चोर्जश्च सहश्च । सहस्यश्च तपश्च तपस्यश्चोपयामगृहीतोऽसि सँ सर्वोस्य हस्पत्याय स्य ॥
-तै. सं. १.४. १४ ऋग्वेद में चान्द्रमास और सौरवर्ष की चर्चा कई स्थानों पर आयी है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि चान्द्र और सौर का समन्वय करने के लिए अधिमास की कल्पना ऋग्वेद के समय में प्रचलित थी।
प्रश्नव्याकरणांग में बारह महीनों की बारह पूर्णमासी और अमावस्याओं के नाम और उनके फल निम्न प्रकार बताये हैं
.. ता कहते पुण्यमासी भाहितेति वदेज्जा तस्थ खलु इमातो बारस पुण्णमासीओ बारस अमावसाओ पण्णत्ताओ तं जहा संविट्ठी, पोटुवती, असोइ, कत्तिया, मगसिरा, पोसी, माही, फग्गुणी, चेत्ती, विसाही, जेहामुका, असाढी॥ -प्र. व्या. १०.१
अर्थात्-श्रावण मास की श्रविष्ठा, भाद्रपद की पौष्ठवती, आश्विन की असोई, कार्तिक की कृत्तिका, मार्गशीर्ष की मृगशिरा, पौष की पौषी, माघ की माघी, फाल्गुन की फाल्गुनी, चैत्र की चैत्री, वैशाख की विशाखी, ज्येष्ठ की मूली एवं आषाढ़ की आषाढ़ी पूर्णिमा बतायी गयी है। कहीं-कहीं पूर्णमासियों के नामों के आधार पर मासों के नाम भी आये हैं। ऋतुविचार
__ उदयकाल में ऋतु-विचार किया जाता था। ई. पू. ८००० में वसन्त ऋतु ही प्रारम्भिक ऋतु मानी जाती थी, किन्तु ई. पू. ५०० में प्रारम्भिक ऋतु वर्षा ऋतु मानी जाने लगी थी। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है ।
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