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लग गयी थी।
इस काल की ज्ञानराशि पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि सूर्य और चन्द्रमा के अतिरिक्त भौमादि ५ ग्रह भी ज्योतिषविषयक साहित्य के विषय बन गये थे। जैन अंग-साहित्य में नवग्रहों का स्पष्ट उल्लेख भी ईसवी सन् से सहस्रों वर्ष पूर्व होने लग गया था। यद्यपि उपलब्ध द्वादशांग इतना प्राचीन नहीं है, लेकिन उसकी परम्परा अविच्छिन्न रूप से बहुत पहले से चली आ रही थी। भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण के अनन्तर उनके उपदेशानुसार द्वादशांग साहित्य में संशोधन और परिवर्धन किये गये थे तथा अंग-साहित्य का एक नवीन संस्करण तैयार किया गया था।
उदयकाल की ज्योतिष परम्परा में स्वतन्त्र रूप से इस विषय की रचनाएँ नहीं मिलती हैं । पर अन्य विषयों के साथ जितना इस विषय का साहित्य है, उनका संकलन किया जाये तो खासा साहित्य इस युग का तैयार हो सकता है ।
इस युग में ज्योतिष के भेद-प्रभेद भी आविर्भूत नहीं हुए थे, केवल सामान्य ज्योतिष शब्द से इस शास्त्र के ग्रह-नक्षत्र के गणित और उनके फल गृहीत होते थे।
___ ईसवी सन् से पांच सौ वर्ष पूर्व में रचे गये प्राचीन जैन आगम में ज्योतिषी के लिए 'जोईसंगविउ' शब्द आया है। भाष्यकारों ने इस शब्द का अर्थ ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक और ताराओं के विभिन्नविषयक ज्ञान के साथ और ग्रहों की सम्यक् स्थिति के ज्ञान को प्राप्त करना, किया है। अतएव स्पष्ट है कि उदयकाल में राशिचक्र, नक्षत्रचन्द्र और ग्रहचक्र का प्रचार था।
प्रत्येक काल में ज्योतिष के ऊपर देश की परिस्थिति और राजनीति का प्रभाव पड़ता रहता है। प्रस्तुत उदयकालीन ज्योतिष भी उपर्युक्त परिस्थितियों से अछूता नहीं है। उस समय की प्रजातन्त्र प्रणाली का प्रभाव ज्योतिष पर गहरा पड़ा है । फलतः फल-प्रतिपादक ग्रह और नक्षत्रों को समान रूप में स्वीकार किया गया है। जबतक भारत में कौटिल्य नीति का प्रचार नहीं हुआ तबतक मित्रत्व, शत्रुत्व, उच्चत्व और नीचत्वं आदि दृष्टियों से फल प्रतिपादन की प्रणाली का प्रचलन इस शास्त्र में नहीं हुआ है। उदयकाल में केवल ग्रहों की योग्यता की दृष्टि से फल-प्रक्रिया प्रचलित थी। इस प्रक्रिया का समर्थन विषुवकथन की प्रणाली से होता है।
अतः यह निर्विवाद सिद्ध है कि इस युग में ज्योतिष ने साहित्यरूप में जन्म ही नहीं लिया था, बल्कि वह अपने शैशवकाल के साथ अठखेलियाँ करता हुआ अपनी किशोर अवस्था को प्राप्त हो रहा था। उदयकालीन ज्योतिष-सिद्धान्त
वैदिक साहित्य विविध विषयों का अथाह समुद्र है, इसमें धार्मिक सिद्धान्तों के साथ-साथ ज्योतिष के अनेक सिद्धान्त चामत्कारिक ढंग से बताये गये हैं। ऋग्वेद में वर्ष को १२ चान्द्रमासों में विभक्त किया है तथा प्रत्येक तीसरे वर्ष चान्द्र और सौर वर्ष
प्रथमाध्याय
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