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बाद आया हो, पर सृष्टि-रचना के साथ ही विश्वस्रष्टा ने उनके साथ मानव का सम्बन्ध स्थापित कर दिया था, जिससे आवश्यक ज्योतिष-विषयक सिद्धान्त उसे उसी समय ज्ञात हो चुके थे।
जैन-मान्यता की दृष्टि से विचार करने पर अन्धकारकाल के ज्योतिष-तत्त्व पर बड़ा सुन्दर प्रकाश पड़ता है। इस मान्यता के अनुसार यह संसार अनादिकाल से ऐसा ही चला आ रहा है, इसमें न कोई नवीन वस्तु उत्पन्न होती है और न किसी का विनाश ही होता है, केवल वस्तुओं को पर्यायें बदला करती हैं। इस संसार का कोई स्रष्टा नहीं है, यह स्वयं सिद्ध है। किन्तु भारत और ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पण काल के अन्त में खण्ड प्रलय होता है जिससे कुछ पुण्यात्माओं को, जो विजयाद्ध की गुफाओं में छिप गये थे, छोड़ शेष सभी जीव नष्ट हो जाते हैं। उत्सर्पण के दुःषमा-दुःषमा नामक प्रथम काल में जल, दूध और घी की वृष्टि से जब पृथ्वी चिकनी रहने योग्य हो जाती है तो वे बचे हुए जीव आकर बस जाते हैं और फिर उनका संसार चलने लगता है।
जैन मान्यता में बीस कोड़ाकोड़ी अद्धा सागर का कल्पकाल बताया गया है । इस कल्पकाल के दो भेद हैं-एक अक्सर्पण और दूसरा उत्सर्पण । अवसर्पणकाल के सुषम-सुषम, सुषम, सुषम-दुःषम, दुःषम-सुषम, दुःषम और दुःषम-दुःषम ये छह भेद तथा उत्सर्पण के दुःषम-दुःषम, दुःषम, दुःषम-सुषम, सुषम-दुःषम, सुषम और सुषम-सुषम ये छह भेद माने गये हैं। सुषम-सुषम का प्रमाण ४ कोड़ाकोड़ी सागर, सुषम का तीन कोडाकोड़ी सागर, सुषम-दुःषम का २ कोडाकोड़ी सागर, दुःषम-सुषम का ४२ हजार वर्ष कम १ कोड़ाकोड़ी सागर, दुःषम का २१ हज़ार वर्ष एवं दुःषम-दुःषम का २१ हजार वर्ष होता है। प्रथम और द्वितीय काल में भोगभूमि की रचना, तृतीय काल के आदि में भोगभूमि और अन्त में कर्मभूमि की रचना रहती है। इस तृतीय काल के अन्त में १४ कुलकर उत्पन्न होते हैं जो प्राणियों को विभिन्न प्रकार की शिक्षाएँ देते हैं।
प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति के समय में जब मनुष्य को सूर्य और चन्द्रमा दिखलाई पड़े तो वे इनसे सशंकित हुए और अपनी शंका दूर करने के लिए उनके पास गये । इन्होंने सूर्य और चन्द्रमा सम्बन्धी ज्योतिष-विषयक ज्ञान की शिक्षा दी। जिससे इनके समय के मनुष्य इन ग्रहों के ज्ञान से परिचित होकर अपने कार्यों का संचालन करने लगे । इसके पश्चात् द्वितीय कुलकर ने नक्षत्र-विषयक शंकाओं का निराकरण कर अपने १. यह अरब-खरब की संख्या से कई गुना अधिक होता है। २. जहाँ भोजन, वस्त्र आदि समस्त आवश्यकता की चीजें कल्पवृक्षों से प्राप्त होती हैं, वह भोगभूमि
कहलाती है। इस काल में बालक ४९ दिन में युवावस्था को प्राप्त हो जाता है और आयु अपरिमित काल की होती है । इस युग में मनुष्य को योगक्षेम के लिए किसी प्रकार का श्रम नहीं करना पड़ता है।
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