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युग के व्यक्तियों को आकाश-मण्डल की समस्त बातें बतलायौं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन मान्यता के अनुसार इस कल्पकाल में आज से अरब-खरब वर्षों पहले ज्योतिष-तत्त्वों की शिक्षाएं दी गयी थीं । उपलब्ध जैनसाहित्य भले ही इतना प्राचीन न हो, पर उसके तत्व मौखिक रूप में खरबों वर्ष पहले विद्यमान थे। आज इतिहास भी जैनधर्म का अस्तित्व प्रागैतिहासिक काल में स्वीकार करता है । इस धर्म सिद्धान्तों को व्यक्त करनेवाली प्राकृत भाषा ही इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि यह धर्म प्राणियों का नैसर्गिक धर्म है। प्रागैतिहासिक काल के क्षत्रिय इस धर्म के आराधक थे और वे आध्यात्मिक विद्या से पूर्ण परिचित थे । छान्दोग्य उपनिषद् में एक कथा आयी है, जिसमें बताया है कि अरुण के पुत्र श्वेतकेतु पांचालों की परिषद् में गये और वहाँ क्षत्रिय राजा प्रवण जैबालि ने उनसे जीव की उत्क्रान्ति, परलोक गति और जन्मान्तर के सम्बन्ध में ५ प्रश्न किये; किन्तु श्वेतकेतु उनमें से किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका । इसके पश्चात् श्वेतकेतु अपने पिता के पास आया और जैबालि द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर उनसे चाहा, पर पिता भी उन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके । अतएव दोनों मिलकर जैबालि के पास गये और उनसे प्रश्नों का उत्तर पू -
स ह कृच्छीवभूव तंह चिरं वस इत्याज्ञापयांचकार । तं होवाच यथा मा त्वं गौतमावदो यथेयं न वाक् त्वत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्छति । अर्थात्-गौतम की प्रार्थना सुनकर राजा चिन्तित हुआ और उसने ऋषि से कुछ समय ठहरने को कहा और प्रश्नों का उत्तर देना आरम्भ किया-हे गौतम ! आप मुझसे जो विद्या प्राप्त करना चाहते हैं, वह आपसे पहले किसी ब्राह्मण को प्राप्त नहीं हुई है ।
बृहदारण्यक उपनिषद् के निम्न मन्त्र से भी इसका समर्थन होता हैइयं विद्या इतः पूर्व न कस्मिंश्चित् ब्राह्मणे उवास तो स्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि ।
- उ. ३।२।८ अतएव स्पष्ट है कि आध्यात्मिक ज्ञान की धारा के समान जैन ज्योतिष की धारा भी अन्धकारकाल में विकसित थी। इसलिए उदयकाल के जैन साहित्य में ग्रह-नक्षत्रों का अत्यन्त सुस्पष्ट कथन मिलता है ।
अन्धकार युग के ज्योतिष-विषयक साहित्य के अभाव में भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उस काल में ज्योतिष विकसित अवस्था में था। भारतीय ऋषियों ने दिव्य ज्ञानशक्ति द्वारा आकाश-मण्डल के समस्त तत्त्वों को ज्ञात कर लिया था और जैसे-जैसे आगे जाकर अभिव्यंजना की प्रणाली विकसित होती गयी, ज्योतिष तत्त्व साहित्य द्वारा
१. इणससितारावदविभयं दंडादिसीमचिण्हकदि। तुरगादिवाहणं सिसुमुहदंसपणिम्भयं वेत्ति ।
-वि. सा.गा, ७९९
प्रथमाध्याय
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