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नहीं है। इस पृथ्वी पर जन्म लेते ही उसने अपनी चक्षुओं के द्वारा आकाश का रहस्य अवश्य ज्ञात किया होगा। प्राणिशास्त्र बतलाता है कि आदि मानव अपने योग और ज्ञान द्वारा,आयुर्वेद एवं ज्योतिषशास्त्र के मौलिक तत्वों को ज्ञात कर भौतिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था।
अन्धकारकाल की ज्योतिष-विषयक मान्यताओं का पता उदयकाल और आदिकाल के साहित्य से भी लग जाता है। सर्वप्रथम यहाँ वैदिक मान्यता के आधार पर इस काल का समर्थन किया जायेगा।
वैदिक दर्शन में सृष्टि का सृजन और विनाश माना गया है। इसके अनुसार सृष्टि के बन जाने के अनन्तर ही मनुष्य ग्रह-नक्षत्रों का अध्ययन करना शुरू कर देता है और ज्योतिष के आवश्यक जीवनोपयोगी तत्त्वों को ज्ञात कर अपनी ज्ञानराशि की वृद्धि करता है । भाषा शक्ति भी जगन्नियन्ता द्वारा उसे प्राप्त हो जाती है तथा भाव
और विचारों को अभिव्यक्त करने की क्षमता भी साधारणतया आ जाती है। परन्तु इतनी विशेषता है कि अभिव्यंजना का विकास एकाएक नहीं होता, बल्कि धीरे-धीरे विकसित हो इसी प्रणाली से साहित्य का जन्म होता है।
जब से मनुष्य ने चिन्ता करना आरम्भ किया तभी से उसकी वाक्शक्ति, कल्पना और बुद्धि उसके रहस्योद्घाटन के लिए प्रवृत्त हुई है। शास्त्रों में बताया गया है कि परिदृश्यमान विश्व एक समय प्रगाढ़ अन्धकार से आच्छादित था । उस समय की अवस्था का पता लगाना कठिन है, किसी भी लक्षण द्वारा उसका अनुमान करना सम्भव नहीं। उस समय यह तर्क और ज्ञान से अतीत होकर प्रगाढ़ निद्रा में अभिभूत था। अनन्तर स्वयम्भू अव्यक्त भगवान् महाभूतादि २४ तत्त्वों में इस संसार को प्रकट कर तमोभूत अवस्था के विध्वंसक हो प्रकट हुए । सृष्टि की कामना से इस स्वयंशरीरी भगवान् ने अपने शरीर से जल की सृष्टि की और उसमें बीज डालकर सुवर्ण सदृश तेजोमय एक अण्डा निकाला। उस अण्डे में भगवान् ने स्वयं पितामह ब्रह्मा के रूप में जन्म ग्रहण किया। इसके पश्चात् ब्रह्मा ने अपने ध्यानबल से इस ब्रह्माण्ड को दो खण्डों में विभक्त कर दिया। ऊर्ध्व खण्ड में स्वर्गादि लोक, अधोखण्ड में पृथिव्यादि तथा मध्यदेश में आकाश, अष्टदिक् और समुद्रों की सृष्टि की। इसके अनन्तर मानव आदि प्राणी तथा उनमें मन, विषयग्राहक इन्द्रियाँ, अनन्त कार्यक्षमता, अहंकार आदि का सृजन किया। सारांश यह कि 'अण्डे' के भीतर से जब भगवान् निकले तब उनके सहस्र सिर, सहस्र नेत्र और सहस्र भुजाएँ थीं। ये ही उस मानव सृष्टि के रूप में प्रकट हुए जो सृष्टि असीम, अनन्त और विराट् थी। इस विश्व को भगवान् का द्वितीय रूप कहा गया है, जिसके दोनों चक्षु चन्द्र और सूर्य बताये गये हैं।
उपर्युक्त सृष्टि-निर्माण के विश्लेषण से स्पष्ट है कि मानव को जिस समय इन्द्रियाँ और मन प्राप्त हुए उसी समय उसे सृष्टि-रहस्य को व्यक्त करनेवाले ज्योतिषतत्त्व भी ज्ञात हो गये थे। चाहे उपर्युक्त सृष्टि-तत्त्व शास्त्र रूप में सहस्रों वर्षों के
प्रथमाध्याय
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