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महाकुण्डलिनी नाम की शक्ति समस्त सृष्टि में परिव्याप्त रहती है और व्यक्ति में यही शक्ति कुण्डलिनी के रूप में व्यक्त होती है। इसका विश्लेषण इस प्रकार समझना चाहिए कि पीठ में स्थित मेरुदण्ड सीधे जहाँ जाकर पायु और उपस्थ के मध्य भाग में लगता है, वहां त्रिकोण चक्र में स्वयम्भू लिंग स्थित है। इस चक्र का अन्य नाम अग्निचक्र भी बताया गया है। इस स्वयम्भू लिंग को साढ़े तीन वलयों में लपेटे सर्प की तरह कुण्डलिनी अवस्थित है। इसके अनन्तर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धाख्य और आज्ञा ये षट्चक्र क्रमशः ऊपर-ऊपर स्थित हैं । इन चक्रों को भेद करने के बाद मस्तक में शून्यचक्र है, जहाँ जीवात्मा को पहुंचा देना योगी का चरम लक्ष्य होता है। इस स्थान पर सहस्रारचक्र होता है। प्राणवायु को वहन करनेवाली मेरुदण्ड से सम्बद्ध इडा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियां हैं। इनमें इडा और पिंगला को सूर्य और चन्द्र भी कहा गया है। सुषुम्ना के भीतर वज्रा, चित्रिणी और ब्रह्मा ये तीन नाड़ियां कुण्डलिनी शक्ति का वास्तविक मार्ग हैं। साधक नाना प्रकार की साधनाओं द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को उद्बुद्ध कर स्फोट-नाद करता है। इस नाद से सूर्य, चन्द्र और अग्नि रूप प्रकाश होता है। इस प्रकार योगी लोग व्यक्ति के अन्दर रहनेवाली कुण्डलिनी को महाकुण्डलिनी में मिलाने का प्रयत्न करते हैं ।
उपर्युक्त योग-ज्ञान केवल आध्यात्मिक ही नहीं, प्रत्युत ज्योतिषविषयक भी है। उक्त योगबल से भारतीयों ने अपने भीतर के रहनेवाले सौर-जगत् को पूर्णतया ज्ञात कर और उसकी तुलना निरीक्षण द्वारा आकाशमण्डलीय सौर-जगत् से कर अनेक ज्योतिष के सिद्धान्त निकाले, जो बहुत काल तक मौखिक रूप में अवस्थित रहे।
___ अनुभव भी बतलाता है कि मानव ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सबसे प्रथम स्थान, दिक् और काल इन तीन के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की होगी। क्योंकि किसी से भी पूछा जाये कि अमुक वस्तु कहाँ स्थित है ? तो वह यही उत्तर देगा कि अमुक दिशा में है। अमुक घटना कब घटी ? तो वह यही कहेगा कि अमुक समय में । अभिप्राय यह है कि अमुक स्थान से इतना पूर्व, अमुक से इतना दक्षिण, इतने बजकर इतने मिनट पर अमुक कार्य हुआ, इतना बतला देने पर उस कार्य-विषयक स्वाभाविक जिज्ञासा शान्त हो जाती है। ज्योतिष द्वारा उक्त विषयों का ज्ञान प्राप्त करना ही साध्य माना गया है । इसलिए उदयकाल में जब ज्योतिष के सिद्धान्त लिपिबद्ध किये जा रहे थे, इसकी बड़ी प्रशंसा की गयी है। स्थान एवं कालबोधक शास्त्र होने के कारण इसे जीवन का अभिन्न अंग बतलाया गया है।
___ यद्यपि अन्धकारयुग का ज्योतिष-विषयक साहित्य उपलब्ध नहीं है, पर तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उस काल का मानव दिन, रात, पक्ष, मास, अयन और वर्ष आदि कालांगों से पूर्ण परिचित था। इस जानकारी के साथ-साथ ही उसे काल को प्रकट करनेवाले चन्द्र, सूर्य का बोध भी अवश्य रहा होगा। लिखित प्रमाणों के अभाव में इस युग में आकाशमण्डल मानव की दृष्टि से ओझल रहा हो, यह मानने की बात
भारतीय ज्योतिष
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