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और अष्टमेश का एक साथ रहना पति या पत्नी की कुण्डली में अनिष्टकारक होता है। यदि यही योग दोनों की कुण्डली में हो तो अच्छा होता है।
ज्योतिष शास्त्र में एक मत यह है कि वर की कुण्डली में लग्न और शुक्र एवं कन्या की कुण्डली में लग्न और चन्द्रमा से ११४।७।८१२वें स्थान के पापग्रहों का विचार करते हैं । वर और कन्या के अनिष्टकारी पापग्रहों की संख्या समान या कन्या से वर के ग्रहों की संख्या अधिक होनी चाहिए। कन्या का सातवां और आठवां स्थान विशेष रूप से देखना चाहिए।
वर की कुण्डली में लग्न से ६ठे स्थान में मंगल, ७वें में राहु और ८वें में शनि हो तो भार्याहन्ता योग होता है, इसी प्रकार कन्या की कुण्डली में उपर्युक्त योग हो तो पतिहन्ता योग होता है। सौभाग्य विचार
सप्तम में शुभग्रह हों तथा सप्तमेश शुभग्रहों से युत या दृष्ट हो तो सौभाग्य अच्छा होता है। अष्टम स्थान में शनि या मंगल का होना सौभाग्य को बिगाड़ता है । अष्टमेश स्वयं पापी हो या पापी ग्रहों से सुत या दृष्ट हो तो सौभाग्य को खराब करता है। सौभाग्य का विचार वर और कन्या दोनों की कुण्डली में कर लेना चाहिए। यदि कन्या का सौभाग्य वर के सौभाग्य से यथार्थ न मिलता हो तो सम्बन्ध नहीं करना चाहिए। मिलान करने के अन्य नियम
१--वर के सप्तम स्थान का स्वामी जिस राशि में हो, वही राशि कन्या की हो तो दाम्पत्य-जीवन सुखमय होता है।
२-यदि कन्या की राशि वर के सप्तमेश का उच्च स्थान हो तो दाम्पत्यजीवन में प्रेम बढ़ता है । सन्तान और सुख होता है।
३-वर के सप्तमेश का नीच स्थान यदि कन्या की राशि हो तो भी वैवाहिक जीवन सुखी रहता है।
४-वर का शुक्र जिस राशि में हो, वही राशि यदि कन्या की हो तो विवाह कल्याणकारी होता है।
५-वर की सप्तमांश राशि यदि कन्या की राशि हो तो दाम्पत्य जीवन सुखकारक होता है । सन्तान, ऐश्वर्य की बढ़ती होती है।
६-वर का लग्नेश जिस राशि में हो, वही राशि कन्या की हो या वर के चन्द्रलग्न से सप्तम स्थान में जो राशि हो वही राशि यदि कन्या को हो तो दाम्पत्यजीवन प्रेम और सुखपूर्वक व्यतीत होता है ।
७-वर की राशि से सप्तम स्थान पर जिन-जिन ग्रहों की दृष्टि हो, वे ग्रह
पंचम अध्याय
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