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मेलापक
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पंचम अध्याय
यह पहले ही लिखा जा चुका है कि ज्योतिष शास्त्र सूचक है। वर-कन्या को जन्मपत्रियों को मिलाने का आशय केवल परम्परा का किन्तु भावी दम्पति के स्वभाव, गुण, प्रेम और आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में ज्ञात करना है । जबतक समान आचार-व्यवहारवाले वर-कन्या नहीं होते तबतक दाम्पत्यजीवन सुखमय नही हो सकता है । जन्मपत्रियों की मेलनपद्धति वर-कन्या के स्वभाव, रूप और गुणों को अभिव्यक्त करती है । भारतीय संस्कृति में प्रेमपूर्वक विवाह कल्याणकारी नहीं माना गया है । किन्तु दो अपरिचित व्यक्तियों का जीवन-भर के लिए गठबन्धन कर दिया जाता है । यदि ऐसी परिस्थिति में उन दोनों के स्वभाव के बारे में सूचक ज्योतिष द्वारा कुछ जान लिया जाये तो अत्यन्त उपकार उन व्यक्तियों का हो सकता है । अतएव इस वैज्ञानिक मेलन- पद्धति की उपेक्षा करना नितान्त अनुचित है । ज्योतिष नक्षत्र, योग, ग्रह, राशि आदि के तत्त्वों के आधार पर व्यक्ति के स्वभाव, गुण का निश्चय करता है । वह बतलाता है कि अमुक नक्षत्र, ग्रह और राशि के प्रभाव से उत्पन्न पुरुष का अमुक नक्षत्र, ग्रह और राशि के प्रभाव से उत्पन्न नारी के साथ सम्बन्ध करना अनुकूल है । या प्रभाव - शामक सामंजस्य के होने से दोनों के स्वभाव - गुण में समानता है । अतएव मेलन पद्धति द्वारा वर-कन्या की जन्मपत्रियों का विचार करना चाहिए । यहाँ सर्वप्रथम ग्रह मिलाने की विधि लिखी जाती है ।
ज्योतिष शास्त्र में स्त्रीनाशक और पतिनाशक योग बताये गये हैं, जिनमें अधिकांश का उल्लेख तृतीय अध्याय में किया जा चुका है ।
जन्मकुण्डली में १२४/७ ८ १२वें भाव में पापग्रहों का होना पति या पत्नीनाशक कहा गया है । इन स्थानों में पुरुष की कुण्डली में मंगल होने से समंगल और स्त्री की कुण्डली में मंगल होने से मंगली संज्ञक योग होते हैं । समंगल पुरुष का मंगली स्त्री के साथ सम्बन्ध करना ठीक कहा जाता है, इसी प्रकार मंगली स्त्री का समंगल पुरुष के साथ सम्बन्ध होना अच्छा होता है । ज्योतिष में उपर्युक्त स्थानों में स्थित मंगल सबसे अधिक दोषकारक, उससे कम शनि और शनि से कम अन्य पापग्रह बताये गये हैं । इस योग को चन्द्रमा, शुक्र और सप्तमेश से भी देख लेना चाहिए । स्त्री की कुण्डली में सप्तम और अष्टम स्थान में शनि और मंगल इन दोनों का रहना बुरा माना है । सप्तमेश
भारतीय ज्योतिष
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विवाह के पूर्व निर्वाह नहीं है,
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