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तात्पर्य यह है कि ग्रहों के जिन तत्वों के प्रभाव से जो रत्न-विशेष प्रभावित है, उसका प्रयोग उस ग्रह के तत्त्व के अभाव में उत्पन्न मनुष्य पर किया जाये तो वह अवश्य ही उस व्यक्ति को उचित शक्ति देनेवाला होगा। कृष्ण पक्ष में उत्पन्न जिन व्यक्तियों को चन्द्रमा का अरिष्ट होता है अर्थात् जिन्हें चन्द्रबल या चन्द्रमा की अमृत रश्मियों की शक्ति उपलब्ध नहीं होती है; उनके शरीर में कैल्शियम-चूने की अल्पता रहती है। ऐसी अवस्था में उक्त कमी को पूरा करने के लिए चन्द्रप्रभावजन्य मौक्तिक मणि अथवा चन्द्रकान्त का प्रयोग लाभकारी होता है। ज्योतिषी चन्द्रमा के कष्ट से पीड़ित व्यक्ति को इसी कारण मुक्ता धारण करने का निर्देश करते हैं। अनुभवी ज्योतिर्विद् ग्रहों की गति से. ही शारीरिक और मानसिक विकारों का अनुमान कर लेते हैं । अतएव सिद्ध है कि ग्रहों की रश्मियों का प्रभाव संसार के समस्त पदार्थों पर पड़ता है; ज्योतिष शास्त्र इस प्रभाव का विश्लेषण करता है।
भारतीय ज्योतिष के लौकिक पक्ष में एक रहस्यपूर्ण बात यह है कि ग्रह फलाफल के नियामक नहीं है, किन्तु सूचक हैं। अर्थात् ग्रह किसी को सुख-दुख नहीं देते, बल्कि आनेवाले सुख-दुख की सूचना देते हैं । यद्यपि यह पहले कहा गया है कि ग्रहों को रश्मियों का प्रभाव पड़ता है, पर यहाँ इसका सदा स्मरण रखना होगा कि विपरीत वातावरण के होने पर रश्मियों के प्रभाव को अन्यथा भी सिद्ध किया जा सकता है। जैसे अग्नि का स्वभाव जलाने का है, पर जब चन्द्रकान्तमणि हाथ में ले ली जाती है, तो वही अग्नि जलाने के कार्य को नहीं करती, उसकी दाहक शक्ति चन्द्रकान्त के प्रभाव से क्षीण हो जाती है। इसी प्रकार ग्रहों की रश्मियों के अनुकूल और प्रतिकूल वातावरण का प्रभाव अनुकूल या प्रतिकूल रूप से अवश्य पड़ता है। आज के कृत्रिम जीवन में ग्रह-रश्मियाँ अपना प्रभाव डालने में प्रायः असमर्थ रहती हैं । भारतीय दर्शन या अध्यात्मशास्त्र का यह सिद्धान्त भी उपेक्षणीय नहीं कि अर्जित संस्कार ही प्राणी के सुख-दुख, जीवन-मरण, विकास-ह्रास, उन्नति-अवनति प्रभृति के कारण हैं । संस्कारों का अर्जन सर्वदा होता रहता है। पूर्व संचित संस्कारों को वर्तमान संचित संस्कारों से प्रभावित होना पड़ता है।
अभिप्राय यह है कि मनुष्य अपने पूर्वोपार्जित अदृष्ट के साथ-साथ वर्तमान में जो अच्छे या बुरे कार्य कर रहा है, उन कार्यों का प्रभाव उसके पूर्वोपार्जित अदृष्ट पर अवश्य पड़ता है। हाँ, कुछ. कर्म ऐसे भी मजबूत हो सकते हैं जिनके ऊपर इस जन्म में किये गये कृत्यों का प्रभाव नहीं भी पड़ता है। उदाहरण के लिए एक कोष्ठबद्धता के रोगी को लिया जा सकता है। परीक्षा के बाद इस रोगी से डॉक्टर ने कहा कि तुम्हारी कोष्ठबद्धता दस दिन के उपवास करने पर ही ठीक हो सकती है। यदि इस रोगी को उपवास न करा के विरेचन की दवा दे दी जाये तो वह दूसरे दिन ही मल के निकल जाने पर तन्दुरुस्त हो जाता है। इसी प्रकार पूर्वोपार्जित कर्मों की स्थिति और उनकी शक्ति को इस जन्म के कृत्यों के द्वारा सुधारा जा सकता है।
भारतीय ज्योतिष
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