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जन्मान्तरों के संचित कर्मों को एक साथ भोगना सम्भव नहीं है; क्योंकि इनसे मिलनेवाले परिणामस्वरूप फल परस्पर विरोधी होते हैं, अत इन्हें एक के बाद एक कर भोगना पड़ता है । संचित में से जितने कर्मों के फल को पहले भोगना शुरू होता है, उतने ही को प्रारब्ध कहते हैं । तात्पर्य यह है कि संचित अर्थात् समस्त जन्म-जन्मान्तर के कर्मों के संग्रह में से एक छोटे भेद को प्रारब्ध कहते हैं । यहाँ इतना स्मरण रखना होगा कि समस्त संचित का नाम प्रारब्ध नहीं, बल्कि जितने भाग का भोगना आरम्भ हो गया है, प्रारब्ध है। जो कर्म अभी हो रहा है या जो अभी किया जा रहा है, वह क्रियमाण है । इस प्रकार इन तीन तरह के कर्मों के कारण आत्मा अनेक जन्मोंपर्यायों को धारण कर संस्कार अर्जन करता चला आ रहा है ।
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आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्म-प्रवाह के कारण लिंगशरीर — कार्मण शरीर और भौतिक स्थूल शरीर का सम्बन्ध है । जब एक स्थान से आत्मा इस भौतिक शरीर का त्याग करता है तो लिंगशरीर उसे अन्य स्थूल शरीर की प्राप्ति में सहायक होता है । इस स्थूल भौतिक शरीर में विशेषता यह है कि इसमें प्रवेश करते ही आत्मा जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की निश्चित स्मृति को खो देता है इसलिए ज्योतिर्विदों ने प्राकृतिक ज्योतिष के आधार पर कहा है कि यह आत्मा मनुष्य के वर्तमान स्थूल शरीर में रहते हुए भी एक से अधिक जगत् के साथ सम्बन्ध रखता है। मानव का भौतिक शरीर प्रधानतः ज्योतिः, मानसिक और पौद्गलिक इन तीन उपशरीरों में विभक्त है । यह ज्योतिः उपशरीर Astrals body द्वारा नाक्षत्र जगत् से, मानसिक उपशरीर द्वारा मानसिक जगत् से और पौद्गलिक उपशरीर द्वारा भौतिक जगत् से सम्बद्ध है | अतः मानव प्रत्येक जगत् से प्रभावित होता है तथा अपने भाव, विचार और क्रिया द्वारा प्रत्येक जगत् को प्रभावित करता है । उसके वर्तमान शरीर में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनेक शक्तियों का धारक आत्मा सर्वत्र व्यापक है तथा शरीर प्रमाण रहने पर भी अपनी चैतन्य क्रियाओं द्वारा विभिन्न जगतों में अपना कार्य करता है । मनोवैज्ञानिकों ने आत्मा की इस क्रिया की विशेषता के कारण ही मनुष्य के व्यक्तित्व को बाह्य और आन्तरिक दो भागों में विभक्त किया है ।
बाह्य व्यक्तित्व - वह है जिसने इस भौतिक शरीर के रूप में अवतार लिया है । यह आत्मा की चैतन्य क्रिया की विशेषता के कारण अपने पूर्वजन्म के निश्चित प्रकार के विचार, भाव और क्रियाओं की ओर झुकाव प्राप्त करता है तथा इस जीवन के अनुभवों के द्वारा इस व्यक्तित्व के विकास में वृद्धि होती है और यह धीरे-धीरे विकसित होकर आन्तरिक व्यक्तित्व में मिलने का प्रयास करता है ।
आन्तरिक व्यक्तित्व - वह है जो अनेकों बाह्य व्यक्तित्वों को स्मृतियों, अनुभवों और प्रवृत्तियों का संश्लेषण अपने में रखता है ।
बाह्य और आन्तरिक इन दोनों व्यक्तित्व सम्बन्धी चेतना के ज्योतिष में विचार, अनुभव और क्रिया ये तीन रूप माने गये हैं । बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप आन्तरिक
प्रथमाध्याय
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