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बैबिलोनी भाषा के कुछ शब्द ऐसे भी हैं, जो संस्कृत में ज्यों के त्यों पाये जाते हैं, ज्योतिषशास्त्र में इन शब्दों का प्रयोग देखकर इसे बैबीलोन से आया हुआ सिद्ध करने की असफल चेष्टा कुछ समीक्षक करते हैं, किन्तु ज्योतिष के मूलबीजों और अपनी परम्परा के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह विज्ञान भारतीय ज्योतिषियों के मस्तिष्क की ही उपज है। हां, जैसे इस देश ने अरब आदि को इस विज्ञान की शिक्षा दी, उसी प्रकार यूनान और बैबीलोन से पुराना सम्पर्क होने के कारण कुछ ग्रहण भी किया। पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि ये देश ही इस विज्ञान के लिए भारत के गुरु हैं।
जी. आर. के. ने अपनी हिन्दू एस्टॉनमी नामक पुस्तक में बताया है कि “भारत ने टालमी के ज्योतिषसिद्धान्त का उपयोग तो कम ही किया है, किन्तु प्राचीन यूनानी सिद्धान्तों की परम्परा का निर्वाह ही बहुत काल तक करता रहा है । इसके मूलभूत सिद्धान्त यवनों के सम्पर्क से ही प्रस्फुटित हुए हैं। राशियों की नामावली भी भारतीय नहीं है," आदि । गम्भीरता से सोचने पर तथा इस शास्त्र के इतिहास का अवलोकन करने पर यह धारणा भ्रान्त सिद्ध हो जाती है। अतः ईसवी सन् से कम से कम दस हजार वर्ष पहले भारत ने ज्योतिषविज्ञान का आविष्कार किया था। मानव-जीवन और भारतीय ज्योतिष
मनुष्य स्वभाव से ही अन्वेषक प्राणी है । वह सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के साथ अपने जीवन का तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। उसकी इसी प्रवृत्ति ने ज्योतिष के साथ जीवन का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए बाध्य किया है । फलतः वह अपने जीवन के भीतर ज्योतिष तत्त्वों का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता है। इसी कारण वह शास्त्रीय एवं व्यावहारिक ज्ञान द्वारा प्राप्त अनुभव को, ज्योतिष की कसौटी पर कसकर देखना चाहता है कि ज्योतिष का जीवन में क्या स्थान है ? ।
समस्त भारतीय ज्ञान की पृष्ठभूमि दर्शनशास्त्र है, यही कारण है कि भारत अन्य प्रकार के ज्ञान को दार्शनिक मापदण्ड द्वारा मापता है। इसी अटल सिद्धान्त के अनुसार वह ज्योतिष को भी इसी दृष्टिकोण से देखता है। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है, इसका कभी नाश नहीं होता है, केवल यह कर्मों के अनादि प्रवाह के कारण पर्यायों को बदला करता है। अध्यात्मशास्त्र का कथन है कि दृश्य सृष्टि केवल नाम रूप या कर्म ही नहीं है, किन्तु इस नामरूपात्मक आवरण के लिए आधारभूत एक अरूपी, स्वतन्त्र और अविनाशी आत्मतत्त्व है तथा प्राणीमात्र के शरीर में रहनेवाला यह तत्त्व नित्य एवं चैतन्य है, केवल कर्मबन्ध के कारण वह परतन्त्र और विनाशीक दिखलाई पड़ता है। वैदिक दर्शनों में कर्म के संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण ये तीन भेद माने गये हैं। किसी के द्वारा वर्तमान क्षण तक किया गया जो कर्म है-चाहे वह इस जन्म में किया गया हो या पूर्व जन्मों में, वह सब संचित कहलाता है। अनेक जन्म
भारतीय ज्योतिष
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