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________________ जिस अंग पर विचार करना हो उस अंग की राशि जिस प्रकार की ह्रस्व या दीर्घ हो तथा उस अंगसंज्ञक राशि में रहनेवाला जैसा ग्रह हो; उस अंग को वैसा ही ह्रस्व या दीर्घ अवगत करना चाहिए । अंग-ज्ञान के लिए कुछ नियम निम्न प्रकार हैं (१) अंग की राशि कैसी है। (२) उस राशि में ग्रह कैसा है । ( ३ ) अंग निर्दिष्ट राशि का स्वामी किस प्रकार की राशि में पड़ा है। (४) अंग निर्दिष्ट राशि में कोई ग्रह है तो वह किस प्रकार की राशि का स्वामी है। यदि अंगस्थान राशि में एक से अधिक ग्रह हों तो जो सबसे बलवान् हो उससे विचार करना चाहिए । कालपुरुष __ ज्योतिषशास्त्र में फलनिरूपण के हेतु काल-समय को पुरुष माना गया है और इसके आत्मा, मन, बल, वाणी एवं ज्ञान आदि का कथन किया है। बताया है कि इस कालपुरुष का सूर्य आत्मा', चन्द्रमा मन, मंगल बल, बुध वाणी, गुरु ज्ञान, शुक्र सुख, राहु मद और शनि दुख है। जन्म समय में आत्मादि कारक ग्रह बली हों तो आत्मा आदि सबल; और दुर्बल हों तो निर्बल समझना चाहिए; पर शनि का फल विपरीत होता है। शनि दुखकारक माना गया है, अतः यह जितना हीन बल रहता है, उतना उत्तम होता है। तात्कालिक लग्न के पीछे की छह राशियाँ जो उदित रहती हैं, वे काल या जातक के वाम अंग तथा अनुदित—क्षितिज से नीचे अर्थात् लग्न से आगे की छह राशियाँ दक्षिण अंग कहलाती हैं। यदि लग्न में प्रथम द्रेष्काण ( त्र्यंश ) हो तो लग्न १ मस्तक; २, १२ नेत्र; ३, ११ कान; ४, १० नाक; ५, ९ गाल; ६, ८ ठुड्डी और सप्तम भाव मुख होता है । द्वितीय द्रेष्काण हो तो लग्न १ ग्रीवा; २, १२ कन्धा; ३, ११ दोनों भुजाएँ; ४, १० पंजरी; ५, ९ हृदय; ६, ८ पेट और सप्तम भाव नाभि है। तृतीय द्रेष्काण लग्न में हो तो लग्न १ बस्ति; २, १२ लिंग और गुदामार्ग; ३, ११ दोनों अण्डकोश; ४,१० जाँघ; ५, ९ घुटना; ६,८ दोनों घुटनों के नीचे का हिस्सा और सप्तम भाव पैर होता है । इस प्रकार लग्न के द्रेष्काण के अनुसार अंग विभाग को अवगत कर फलादेश समझना चाहिए। जिस अंग स्थित भाव में पाप ग्रह हों उसमें व्रण (घाव), जिसमें शुभ ग्रह हों उसमें चिह्न कहना चाहिए। यदि ग्रह अपने गृह या नवांश में हो तो व्रण या चिह्न जन्म के समय (गर्भ से ही ) से समझना चाहिए, अन्यथा अपनी-अपनी दशा के समय में व्रण या चिह्न प्रकट होते हैं । १. आत्मा रविः शीतकरस्तु चेतः सत्त्वं धराजः शशिजोऽथ वाणी। गुरुः सितौ शानमुखे मदं च राहुः शनिः कालनरस्य दुःखम् ॥ -सारावली, बनारस १९५३ ई , अ. ४, श्लो. १। तृतीयाध्याय २७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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