________________
७ । २०
पन.
पुष्य आश्ले
सन
| ज्य.
1
जन्म-नक्षत्रानुसार ग्रहों की दशा यह होती है। कृत्तिका, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराषाढ़ा में जन्म होने से सूर्य की; रोहिणी, हस्त और श्रवण में जन्म होने से चन्द्रमा की; मृगशिर, चित्रा और धनिष्ठा नक्षत्र में जन्म होने से मंगल की; आर्द्रा, स्वाति और शतभिषा में जन्म होने से राहु की; पुनर्वसु, विशाखा और पूर्वाभाद्रपद में जन्म होने से बृहस्पति की; पुष्य, अनुराधा और उत्तराभाद्रपद में जन्म होने से शनि की; आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती में जन्म होने से बुध की, मघा, मूल और अश्विनी में जन्म होने से केतु की एवं भरणी, पूर्वाफाल्गुनी और पूर्वाषाढ़ा में जन्म होने से शुक्र की दशा होती है।
जन्मनक्षत्र द्वारा ग्रहदशा बोधक चक्र आदित्य चन्द्र भौम | राहु जीव या गुरु| शनि बुध | केतु | शुक्र | ग्र.
६ १०७ १८१६ | १९ | १७ कृ. रो. म. | आर्द्रा
म. पू. फा. उ. फा. ह. चि. | स्वा. वि. | उ.षा. श्र. | ध. | श. | पू. भा. उ. भा. रे. अश्वि . भ. ।
___ दशा जानने की सुगम विधि-कृत्तिका नक्षत्र से जन्मनक्षत्र तक गिनकर ९ का भाग देने से एकादि शेष में क्रम से आ., चं., भौ., रा., जी., श., बु., के. और शु. की दशा होती है। उदाहरण-जन्मनक्षत्र मघा है। यहाँ कृत्तिका से मघा तक गणना की तो ८ संख्या हुई, इसमें ९ का भाग दिया तो लब्ध कुछ नहीं मिला, शेष ८ ही रहे । आ., चं., भो. आदि क्रम से आठ तक गिना तो आठवीं संख्या केतु की हुई । अतः जन्मदशा केतु की कहलायेगी। दशासाधने
भयात और भभोग को पलात्मक बनाकर जन्मनक्षत्र के अनुसार जिस ग्रह की दशा हो, उसके वर्षों से पलात्मक भयात को गुणा कर पलात्मक भभोग का भाग देने से जो लब्ध आये वह वर्ष और शेष को १२ से गुणा कर पलात्मक भभोग का भाग देने से जो लब्ध आये वह मास, शेष को पुनः ३० से गुणा कर पलात्मक भभोग का भाग देने से जो लब्ध आये वह दिन, शेष को पुनः ६० से गुणा कर पलात्मक भभोग का भाग देने से जो लब्ध आये वह घटी एवं शेष को पुनः ६० से गुणा कर पलात्मक भभोग का भाग देने से लब्ध पल आयेंगे। यह वर्ष, मास, दिन, घटी और पल दशा के भुक्त वर्षादि कहलायेंगे । इनको दशा वर्ष में घटाने से भोग्य वर्षादि आ जायेंगे ।
विंशोत्तरी दशा का चक्र बनाने की प्रक्रिया यह है कि पहले जिस ग्रह की भोग्य दशा जितनी आयी है, उसको रखकर फिर क्रम से सब ग्रहों को स्थापित कर देंगे। १. दशामानं भयातघ्नं भभोगेन हृतं फलम् ।
दशायां भुक्तवर्षाद्यं भोग्यं मानाद् विशोधितम् ॥-बृहत्पाराशर होरा, काशी १९५२ ई., ४६।१६ द्वितीयाध्याय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org