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उदाहरण-ग्रह स्पष्ट चक्र में सबसे अधिक अंश बृहस्पति के हैं, अतः बृहस्पति आत्मकारक हुआ । इससे अल्प अंशवाला बुध अमात्यकारक, इससे अल्प अंशवाला शुक्र भ्रातृकारक, इससे अल्प अंशवाला मंगल मातृकारक, इससे अल्प अंशवाला शनि स्त्रीकारक होगा।
कुण्डली निर्माण के लिए विचार किया तो आत्मकारक बृहस्पति कुम्भ के नवांश में है अतः कारकांश कुण्डली की लग्न-राशि कुम्भ होगी। जन्म-कुण्डली में ग्रह जिसजिस राशि में हैं, उसी-उसी राशि में उन्हें स्थापित कर देने से कारकांश कुण्डली बन जायेगी।
स्वांश कुण्डली के निर्माण की विधि-स्वांश कुण्डली का निर्माण प्रायः कारकांश कुण्डली के समान होता है। इसमें लग्न राशि कारकांश कुण्डली को ही मानी जाती है, किन्तु ग्रहों का स्थापन अपनी-अपनी नवांश राशि में किया जाता है । तात्पर्य यह है कि नवांश कुण्डली में ग्रह जिस-जिस राशि में आये हैं स्वांश कुण्डली में भी उस-उस राशि में रखे जायेंगे। उदाहरण-स्वांश कुण्डली की लग्न ११ राशि होगी।
स्वांश कुण्डली चक्र
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दशा विचार
अष्टोत्तरी, विंशोत्तरी, योगिनी आदि कई प्रकार की दशाएँ होती हैं। फल अवगत करने के लिए प्रधान रूप से विंशोत्तरी दशा को ही ग्रहण किया गया है। जातक शास्त्र के मर्मज्ञों ने ग्रहों के शुभाशुभत्व का समय जानने के लिए विंशोत्तरी को ही प्रधान माना है। मारकेश का निर्णय भी विंशोत्तरी दशा से ही किया जाता है । अतः नीचे विंशोत्तरी दशा बनाने की विधि लिखी जाती है।
विंशोत्तरी-इस दशा में १२० वर्ष की आयु मानकर ग्रहों का विभाजन किया गया है। सूर्य की दशा ६ वर्ष, चन्द्रमा की १० वर्ष, भौम की ७ वर्ष, राहु की १८ वर्ष, बृहस्पति की १६ वर्ष, शनि की १९ वर्ष, बुध की १७ वर्ष, केतु की ७ वर्ष एवं शुक्र की २० वर्ष की दशा बतायी गयी है। १९०
भारतीय ज्योतिष
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