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________________ ४३८ षड्दर्शनसमुच्चये “ऐषामैन्द्रियकत्वेऽपि न ताद्रूप्येण धर्मता । श्रेयःसाधनता ह्येषां नित्यं वेदात्प्रतीयते ||२|| ताद्रव्येण च धर्मत्वं तस्मान्नेन्द्रियगोचर: ।" [मी. श्लो. चोदना सू. श्लो. १३-१४] इति ॥ ७१ ॥ $ ५२५. अथ विशेषलक्षणं प्रमाणस्याभिधानीयं तच्च सामान्यलक्षणाविनाभूतम्, ततः प्रथमं प्रमाणस्य सामान्यलक्षणमभिधीयते । 'अनधिगतार्थाधिगन्तृ प्रमाणम्' इति । अनधिगतः अगृहीतो योऽर्थो बाह्यः स्तम्भादिस्तस्याधिगन्तु आधिक्येन संशयादिव्युदासेन परिच्छेदकम् । अनघिगतार्थाधिगन्तु प्रागज्ञातार्थपरिच्छेदकम्, समर्थविशेषणोपादानाज्ज्ञानं विशेष्यं लभ्यते, अगृहीतार्थग्राहकं ज्ञानं प्रमाणमित्यर्थः । अत्र 'अनधिगत' इति पदं धारावाहिज्ञानानां गृहीतग्राहिणां प्रामाण्यपराकरणार्थम् । 'अर्थ' इति ग्रहणं संवेदनं स्वसंविदितं भवति, स्वात्मनि क्रियाविरोधात्, किन्तु, नित्यं परोक्षमेवेति ज्ञापनार्थम् । तच्च परोक्षं ज्ञानं भाट्टमतेऽयं प्राकटयफलानुमेयम् प्रभाकरमते संवेदनाख्य फलानुमेयं वा प्रतिपत्तव्यम् । [का० ७१. 8५२५ हैं फिर भी उनका इन्द्रियगम्य रूप धर्म नहीं है । किन्तु वेदके द्वारा प्रतिपादित उनकी श्रेयःसाधनता हो धर्म है । वेद द्रव्यगुणादिकी श्रेयः साधनताका सदा प्रतिपादन करता है अतः द्रव्य, गुण आदि श्रेयःसाधन रूपसे ही धर्म कहे जाते हैं । यही कारण है कि उनकी वह श्रेयःसाधनता रूप शक्ति, जिसे धर्म कहते हैं, इन्द्रियोंका विषय नहीं होती " ॥ ७१ ॥ ५२५. प्रमाणोंके विशेष लक्षणका कथन सामान्य लक्षणके कथन पूर्वक होता है, पहले प्रमाणका सामान्य लक्षण कहते हैं । "नहीं जाने गये अनधिगत पदार्थको जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है" अनधिगत- नहीं जाने गये खम्भा आदि बाह्य पदार्थोंको संशय आदिका निराकरण कर अधिकता से विशेषता के साथ जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है । यद्यपि लक्षण वाक्य में 'ज्ञान' पद नहीं है फिर 'अगृहीत पदार्थको जाननेवाला' इस समय विशेषणकी सामर्थ्यसे विशेष्यभूत ज्ञानका बोध हो जाता है। तात्पर्य यह कि अंगृहीत पदार्थको जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है। अनधिगत पदसे गृहीत - जाने गये पदार्थों को जाननेवाले गृहीतग्राहिधारावाहि ज्ञानोंकी प्रमाणताके निराकरण के लिए दिया गया है। 'अर्थ' पदसे सूचित होता है कि ज्ञान केवल अर्थको ही जानता है अपने स्वरूपको नहीं । ज्ञान स्वसंवेदी नहीं है, क्योंकि अपने-आपमें क्रियाका विरोध है । वह तो नित्य ही परोक्ष है । भाट्टमत में इस परोक्ष ज्ञानका अर्थ प्राकट्य नामक फलसे अनुमान होता है । ज्ञानके द्वारा जब पदार्थ जाना जाता है तब वह ज्ञात होता है और उसमें ज्ञातता या प्राकट्य नामका धर्म उत्पन्न होता है । इसी प्राकट्यसे ज्ञानके स्वरूपका अनुमान होता है । यदि ज्ञान न होता तो पदार्थ में ज्ञातता या प्राकट्य उत्पन्न नहीं हो सकता । प्राभाकर मतमें उस परोक्ष ज्ञानका प्रमाणके संवेदन रूप फलसे अनुमान होता है । Jain Education International १. एषामिन्द्रिय -भ. २ । २. "एतच्च विशेषणत्रयमुपाददानेन सूत्रकारेण कारणदोष बाधकज्ञानरहितमगृहोतग्राहिज्ञानं प्रमाणम् इति प्रमाणलक्षणं सूचितम् । " - शास्त्रदी. १. १५२ | " अनधिगतार्थं गन्तु प्रमाण इति भट्टमीमांसका आहु: ।" - सि. चन्द्रोदय, पृ. १० । ३. मते प्राकट्य भ. २ । ४. यं भाट्टप्रभा - म. १, प. १, २, आ. क. । "अप्रत्यक्षा नो बुद्धिः प्रत्यक्षोऽर्थः स हि बहिर्देश संबद्धः प्रत्यक्षमनुभूयते, ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छति बुद्धिम् ।" - शाबरमा १।११५ " अर्थापत्तिः ज्ञानस्य प्रमाणम्, सा च अर्थस्य ज्ञातत्वान्यथानुपपत्तिप्रभवा । प्रागर्थस्य ज्ञातत्वाभावान्नोत्पद्यते । ज्ञाते त्वर्थे पश्चात्तज्ज्ञातत्वानुपपत्त्या अर्थापत्तिप्रमाणमुपजायते" - मी. इलो. टी. सू. १/१/५/ शून्यवाद श्लो. १८१-१८२ । “ज्ञानक्रिया हि कमका कर्मभूतेऽर्थे फलं जनयति पाकादिवत् । तदेव च फलं कार्यभूतं कारणभूतं विज्ञानमुपकल्पयतीति सिद्धयत्य प्रत्यक्षमपि ज्ञानम् ।" - शास्त्रदी. १।१।५ । ५. " तस्मान्न बुद्धिविषयं प्रत्यक्षम्, अर्थविषयं हि तत् मतः सिद्धमानुमानिकत्वं बुद्धेः फलतः ।" -शावरमा, पृ. ६७ । बृहती. ११५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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