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________________ - का० ५७.६३६८] जैनमतम् । ३५९ वन्ध्याग स्तनन्धयवत् । न च स्वरूपादिना वस्तुनः सत्त्वे तदैव पररूपादिभिरसत्त्वस्यानुपलम्भोऽस्ति, येन सहानवस्थानलक्षणो विरोधः स्यात्, शीतोष्णवत् । परस्परपरिहारस्थितिलक्षणस्तु विरोध एकत्राम्रफलादौ रूपरसयोरिव संभवतोरेव सदसत्त्वयोः स्यात, न पुनरसंभवतोः संभवदसंभवतोर्वा । एतेन वध्यघातकभावविरोधोऽपि फणिनकुलयोर्बलवदबलवतोः प्रतीतः सत्त्वासत्त्वयोरशनीय एव, तयोः समानबलत्वात्, मयूराण्डरसे नानावर्णवत्। ६ ३६८. किं च, अयं विरोधः किं स्वरूपमात्रसद्भावकृतः, उतैककालासंभवेन, आहोस्विदेकद्रव्यायोगेन, किमेककालैकद्रव्याभावतः, उतैककालैकद्रव्यैकप्रदेशासंभवात्, तत्राद्यो न युक्तः, यतो न हि शीतस्पर्शोऽनपेक्षितान्यनिमित्तः स्वात्मसद्धाव एवोष्णस्पर्शेन सह विरुध्यते. उष्णस्पर्शी वेतरेण, अन्यथा त्रैलोक्येऽप्य भावः स्यादनयोरिति । नापि द्वितीयः, एकस्मिन्नपि काले पृथक् वस्तुमें सत्त्व और असत्त्व दोनों ही प्रतीत हो रहे हैं तब उनमें विरोध कैसा? विरोध तो उनमें होता है जिन दोनोंकी एक साथ अनुपलब्धि रहती है। जैसे वन्ध्या-बाँझ स्त्रीके गर्भमें लड़का नहीं पाया जाता अतः वन्ध्या स्त्रीके गर्भका और बालबच्चेका विरोध है। शीत और उष्ण एक साथ नहीं रह सकते अतः इनमें सहानवस्थान-एक साथ नहीं रहना नामका विरोध माना जाता है। परन्तु वस्तुमें जिस समय स्वरूपकी अपेक्षा सत्त्व रहता है उसी समय पररूपकी अपेक्षा असत्त्वके रहने में कोई आपत्ति तो है ही नहीं जिससे इनमें शीत और उष्णको तरह सहानवस्थान नामका विरोध माना जाय । यदि सत्त्वके रहते समय असत्त्वकी अनुपलब्धि होती तो कदाचित् उनमें विरोध माना जाता। पर घड़ा जिस समय घट है उसी समय वह पट नहीं है। एक आमके फलमें रूप अपनी स्थितिमें रसको अपेक्षा नहीं रखता तथा रस अपनी स्थितिमें रूपकी, अतः इनमें परस्पर-परिहारस्थिति-स्वतन्त्रस्थिति-नामका विरोध माना जाता है। यह विरोध दो विद्यमान पदार्थों में ही होता है, जब दोनों अविद्यमान हों, या एक विद्यमान और दूसरा अविद्यमान तब उनमें यह विरोध नहीं हो सकता। अतः यदि रूप और रसकी तरह सत्त्व और असत्त्वमें परस्पर परिहारस्थितिलक्षण विरोध मानना है तो वस्तुमें दोनोंको सत्ता माननी पड़ेगी। जब वस्तुमें दोनोंको सत्ता सिद्ध हो गयी तो उसकी अनेकान्तात्मकता अपने ही आप सिद्ध हो जाती है। सांप और नेवलेमें बध्यघातक भाव नामका विरोध होता है। यह विरोध हमेशा बलवान् और कमजोरमें हुआ करता है । सो सत्त्व और असत्त्व तो दोनों ही समान बलशाली हैं इसलिए कोई एक दूसरेका घात नहीं कर सकता। जिस प्रकार मोरके अण्डेके द्रव पदार्थमें स्वभावसे ही अनेक रंग होते हैं उसी तरह वस्तुमें सत्त्व-असत्त्व आदि अनेक धर्म होते हैं। ३६८. आप यह बताइए कि इन सत्त्व-असत्त्व आदि धर्मोमें विरोध क्यों होता है ? क्या दोनोंका स्वतन्त्र स्वरूप होनेसे ही उनमें विरोध होता है, या दोनों एक समयमें एक साथ नहीं हो सकते अथवा एक द्रव्य में दोनों एक साथ नहीं रह सकते, अथवा एक कालमें एक द्रव्यमें नहीं रह सकते, या एक समयमें एक द्रव्यके एक प्रदेशमें नहीं रह सकते ? दोनोंका स्वतन्त्र स्वरूप होनेसे ही तो विरोध नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शीतस्पर्श अपने स्वरूपसे ही अन्य किसी समीपदेश संयोग आदि निमित्तके बिना ही यदि उष्ण स्पर्शका विरोधी हो जाय या उष्ण स्पर्श शीतस्पर्शका विरोधी हो जाय; तो संसारसे ही दोनोंका लोप हो जाना चाहिए। शोतस्पर्श अपने स्वरूपके सद्भाव मात्रसे जहां कहीं भी रहकर सारे त्रिलोकके उष्णस्पर्शका नाश कर देगा तथा उष्णस्पर्श अपने स्वरूपकी सत्तासे ही त्रिलोकके शीतस्पर्शका लोप कर देगा। एक कालकी अपेक्षा भी विरोध नहीं कहा जा सकता; क्योंकि एक ही समयमें शीत और उष्ण दोनोंका ही पृथक्-पृथक् सद्भाव हो सकता है तथा है भी उसी समय बरफ ठण्डा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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