________________
षड्दर्शनसमुच्चय दुर्नय बन जाता है यदि अपनी दृष्टिका हो आग्रह हो (१,१५ ) । सभी नय मिथ्यादृष्टि होते हैं यदि वे स्वपक्षके साथ ही प्रतिबद्ध हैं किन्तु यदि वे परस्परकी अपेक्षा रखते हैं तो सम्यक् हो जाते हैं (१,२१ ), दोनों नय माने जायें तब ही संसार-मोक्षको व्यवस्था बन सकती है अन्यथा नहीं (१,१७-२०)। आचार्य सिद्धसेनने अपने इस मतकी पुष्टि के लिए सुन्दर उदाहरण दिया है। उसका निर्देश भी जरूरी है। उन्होंने कहा है कि कितने ही मूल्यवान् वैडूर्य आदि मणि हों किन्तु जबतक वे पृथक्-पृथक् हैं 'रत्नावलि' के नामसे वंचित ही रहेंगे। उसी प्रकार अपने-अपने मतोंके विषयमें ये नय कितने ही सुनिश्चित हों किन्तु जबतक वे अन्य-अन्य पक्षोंसे निरपेक्ष हैं वे 'सम्यग्दर्शन' नामसे वंचित ही रहेंगे। जिस प्रकार वे ही मणि जब अपनेअपने योग्य स्थानमें एक डोरेमें बंध जाते हैं तब अपने-अपने नामों को छोड़कर एक 'रत्नावलि' नामको धारण करते हैं, उसी प्रकार ये सभी नयवाद भी सब मिलकर अपने अपने वक्तव्यके अनुरूप वस्तूदर्शन में योग्य स्थान प्राप्त करके 'सम्यग्दर्शन' नामको प्राप्त कर लेते हैं और अपनी विशेष संज्ञाका परित्याग करते हैं। (१,२२-२५ ) । यही अनेकान्तवाद है।
____ स्पष्ट है कि सन्मतिकार सिद्धसेनके मतसे नयोंका सुनय और दुर्नय ऐसा विभाग जरूरी है। तात्पर्य इतना ही है कि अन्य दर्शनोंके जो मत हैं यदि वे अनेकान्तवादके एक अंश रूपसे हैं तब तो सुनय हैं, अन्यथा दुर्नय । यहीसे नयवादके साथ अन्य दार्शनिक मतोंके संयोजनकी प्रक्रिया शुरू हुई है। स्वयं सिद्धसेनने इस प्रक्रियाका सूत्रपात भी इन शब्दोंमें कर दिया है-जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद है। और जितने नयवाद है उतने ही परसमय = परमत है । कपिलदर्शन द्रव्याथिक नयका वक्तव्य है, और शुद्धोदनतनयका वाद परिशुद्ध पर्यायाथिक नयका वक्तव्य है। तथा उलूक (वैशेषिक) मतमें दोनों नय स्वीकृत हैं फिर भी ये सभी 'मिथ्यात्व' है क्योंकि अपने-अपने विषयको प्राधान्य देते हैं और परस्पर निरपेक्ष हैं। सारांश कि यदि वे अन्य मतसापेक्ष हों तब ही 'सम्यग्दर्शन' संज्ञाके योग्य हैं, अन्यथा नहीं ( ३,४७-४९)।
सिद्धसेनकी इस सूचनाको लेकर तत्कालीन सभी मतोंका संग्रह विक्रम पाँचवीं शतीके पूर्वार्धमें आचार्य मल्लवादीने अपने नयचक्रमें कर दिया है । मल्लवादीका यह अन्य अपने कालकी अद्वितीय कृति कही जा सकती है। वर्तमान में अनुपलब्ध ग्रन्थ और मतोंका परिचय केवल इस नयचक्रसे इसलिए मिलता है कि आचार्य मल्लवादीने अपने काल तक विकसित एक भी प्रधान मतको छोड़ा नहीं। अतएव अपने-अपमे मतको प्रदर्शित करनेवाले तत्-तत् दर्शनोंके ग्रन्थों की अपेक्षा सर्वसंग्राहक यह ग्रन्थ षड्दर्शनसमुच्चय जैसे ग्रन्थोंको पूर्वभूमिका रूप बन जाता है। नयचक्रकी रचनाकी जो विशेषता है वह उसके नामसे ही सूचित हो जाती है। नयोंका अर्थात तत्कालीन नाना वादोंका यह चक्र है। चक्रको कल्पनाके पीछे आचार्यका आशय यह है कि कोई भी मत अपने-आपमें पूर्ण नहीं है। जिस प्रकार उस मतकी स्थापना दलीलोंसे हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्थापन भी विरुद्ध मतकी दलीलोंसे हो सकता है। स्थापना-उत्थापनाका यह चक्र चलता रहता है। अतएव अनेकान्तवादमें ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त करें तब ही उनका औचित्य है, अन्यथा नहीं। इसी आशयको सिद्ध करने के लिए आचार्यने क्रमशः एक-एक मत लेकर उसकी स्थापना की है और अन्य मतसे उसका निराकरण करके अन्यमतकी स्थापना की गयी है। तब तीसरा मत उसकी भो उत्थापना करके अपनी स्थापना करता है-इस प्रकार अन्तिम मत जब अपनी स्थापना करता है तब प्रयम मत उसीका निराकरण करके अपनी स्थापना करता है-इस प्रकार चक्रका एक परिवर्त पूरा हुआ किन्तु चक्रका चलना यहीं समाप्त नहीं होता, पूर्वोक्त प्रक्रियाका पुनरावर्तन होता है।
अपने काल के जिन मतोंका संग्रह नयचक्र में है वे ये हैं-अज्ञानवाद, पुरुषाद्वैत, नियतिवाद, कालवाद, स्वभाववाद, भाववाद, प्रकृति-पुरुषवाद, ईश्वरवाद, कर्मवाद, द्रव्य-क्रियावाद, षड़पदार्थवाद, स्याद्वाद, शब्दाद्वैत, ज्ञानवाद, सामान्यवाद, अपोहवाद, अवक्तव्यवाद, रूपादिसमुदायवाद, क्षणिकवाद, शून्यवाद-इन मुख्य
१. इसके विशेष परिचयके लिए देखो, आगमयुगका जैनदर्शन ( आगरा ) पृ. २१६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org