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जैन धर्म और दर्शन सूर्य, वरुण, इन्द्र श्रादि किसी देव की स्तुति में सीधे तारे से या गर्मित रूप से सर्वशत्व का भाव सूचित करने वाले सर्वचेतस सहस्रचक्षु श्रादि विशेषण प्रयुक्त हैं । उपनिषदों में खासकर पुराने उपनिषदों में भी सर्वज्ञत्व के सूचक और प्रतिपादक विशेषण एवं वर्णन का विकास देखा जाता है। यह वस्तु इतना साबित करने के लिए पर्याप्त है कि भारतीय मानस अपने सम्मान्य देव या पूज्य व्यक्ति में सर्वज्ञत्व का भाव श्रारोपित बिना किये संतुष्ट होता न था। इसीसे हर एक सम्प्रदाय अपने पुरस्कर्ता या मूल प्रवर्तक माने जाने वाले व्यक्ति को सर्वज्ञ मानता था । साम्प्रदायिक बाड़ों के बाजार में सर्वज्ञत्व के द्वारा अपने प्रधान पुरुष का मूल्य श्रॉकने और अँकवाने की इतनी अधिक होड़ लगी थी कि कोई पुरुष जिसे उसके अनुयायी सर्वज्ञ कहते और मानते थे वह खुद अपने को उस माने में सर्वज्ञ न होने की बात कहे तो अनुयायियों की तप्ति होती न थी। ऐसी परिस्थिति में हर एक प्रवर्तक या तीर्थकर का उस-उस सम्प्रदाय के द्वारा सर्वज्ञरूप से माना जाना और उस रूप में उसकी प्रतिष्ठा निर्माण करना यह अनिवार्य बन जाय तो कोई आश्चर्य नहीं।
हम इतिहास काल में आकर देखते हैं कि खुद बुद्ध ने अपने को उस अर्थ में सर्वश मानने का इनकार किया है कि जिस अर्थ में ईश्वरवादी ईश्वर को
और जैन लोग महावीर आदि तीर्थङ्करों को सर्वज्ञ मानते-मनाते थे। ऐसा होते हुए भी आगे जाकर सर्वशत्व मानने मनाने की होड़ ने बुद्ध के कुछ शिष्यों को ऐसा बाधित किया कि वे ईश्वरवादी और पुरुषसर्वज्ञत्ववादी की तरह ही बुद्ध का सर्वशत्व युक्ति प्रयुक्ति से स्थापित करें। इससे स्पष्ट है कि हर एक साम्प्रदायिक प्राचार्य और दूसरे अनुयायी अपने सम्प्रदाय की नीव सर्वज्ञत्व माननेमनाने और युक्ति से उसका स्थापन करने में देखते थे।
इस तार्किक होड़ का परिणाम यह आया कि कोई सम्प्रदाय अपने मान्य पुरुष या देव के सिवाय दूसरे सम्प्रदाय के मान्य पुरुष या देव में वैसा सर्वज्ञत्व मानने को तैयार नहीं जैसा कि वे अपने इष्टतम पुरुष या देव में सरलता से मानते आते थे । इससे प्रत्येक सम्प्रदाय के बीच इस मान्यता पर लम्बे अरसे से बाद-विवाद होता आ रहा है । और सर्वज्ञत्व श्रद्धा की वस्तु मिटकर तर्क की वस्तु बन गया। जब उसका स्थापन तक के द्वारा होना शुरू हुआ तब हर एक तार्किक अपने बुद्धि-बल का उपयोग नये-नये तर्कों के उद्भावन में करने लगा।
१. ऋग्वेद १.२३.३, १०.८१.३ । २. मज्झिमनिकाय-चूलमालुक्यपुत्तसुत्त प्रमाणवार्तिक २.३२-३३ । ३. तत्त्वसंग्रहपंजिका पृ०८६३ ।
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