SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 903
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५३ सर्वज्ञत्व और उसका अर्थ अध्यात्मवेदी ने निश्चय व्यवहार का विश्लेषण किया तब यह समझना कठिन नहीं कि परम्परागत मान्यता को चालू रखने के उपरान्त भी उनके मन में एक नया अर्थ अवश्य सूझा जो उन्होंने अपने प्रिय नयवाद से विश्लेषण के द्वारा सूचित किया जिससे श्रद्धालु वर्ग की श्रद्धा भी बनी रहे और विशेष जिज्ञासु व्यक्ति के लिए एक नई बात भी सुझाई जाय ।। असल में कुन्दकुन्द का यह निश्चयवाद उपनिषदों, बौद्धपिटकों और प्राचीन जैन उल्लेखों में भी जुदे-जुदे रूप से निहित था, पर सचमुच कुन्दकुन्द ने उसे जैन परिभाषा में नए रूप से प्रगट किया। ऐसे ही दूसरे श्राचार्य हुए हैं याकिनीसूनु हरिभद्र । वे भी अनेक तर्कग्रन्थों में त्रैकालिक सर्वज्ञत्व का हेतुवाद से समर्थन कर चुके थे, पर जब उनको उस हेतुवाद में त्रुटि व विरोध दिखाई दिया तब उन्होंने सर्वज्ञत्व का सर्वसम्प्रदाय-अविरुद्ध अर्थ किया व अपना योगसुलभ माध्यस्थ्य सूचित किया। मैंने प्रस्तुत लेख में कोई नई बात तो कही नहीं है, पर कही है तो वह इतनी ही है कि अगर सर्वज्ञत्व को तर्क से, दलील से या ऐतिहासिक क्रम से समझना या समझाना हो तो पुराने जैन ग्रन्थों के कुछ उल्लेखों के आधार पर व उपनिषदों तथा पिटकों के साथ तुलना करके मैंने जो अर्थ समझाया है वह शायद सत्य के निकट अधिक है। त्रैकालिक सर्वज्ञत्व को मानना हो तो श्रद्धापुष्टि व चरित्रशुद्धि के ध्येय से उसको मानने में कोई नुकसान नहीं। हाँ, इतना समझ रखना चाहिए कि वैसा सर्वज्ञत्व हेतुवाद का विषय नहीं; वह तो धर्मास्तिकाय आदि की तरह अहेतुवाद का ही विषय हो सकता है। ऐसे सर्वज्ञत्व के समर्थन में हेतुवाद का प्रयोग किया जाय तो उससे उसे समर्थित होने के बजाय अनेक अनिवार्य विरोधों का ही सामना करना पड़ेगा। श्रद्धा का विषय मानने के दो कारण हैं। एक तो पुरातन अनुभवी योगिनों के कथन की वर्तमान अज्ञान स्थिति में अवहेलना न करना । और दूसरा वर्तमान वैज्ञानिक खोज के विकास पर ध्यान देना । अभी तक के प्रायोगिक विज्ञान ने टेलीपथी, क्लेवोयन्स और प्रीकोग्नीशन की स्थापना से इतना तो सिद्ध कर ही दिया है कि देश-काल की मर्यादा का अनिक्रमण करके भी शान संभव है । यह संभव कोटि योग परंपरा के ऋतंभरा और जैन श्रादि परंपरा की सर्वज्ञ दशा की ओर संकेत करती है। सर्वज्ञत्व का इतिहास भारत में हर एक सम्प्रदाय किसी न किसी रूप से सर्वशत्व के ऊपर अधिक . भार देता आ रहा है। हम ऋग्वेद आदि वेदों के पुराने भागों में देखते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy