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________________ विश्व शांतिवादी सम्मेलन और जैन परम्परा भूमिका मि० होरेस अलेक्जेन्डर प्रमुख कुछ व्यक्तियों ने १९४६ में गाँधीजी के सामने प्रस्ताव रक्खा था कि सत्य और अहिंसा में पूरा विश्वास रखनेवाले विश्व भर के गिने शान्तिवादी आपके साथ एक सप्ताह कहीं शान्त स्थान में बितावें । अनन्तर सेवाग्राम में डा० राजेन्द्रप्रसादजी के प्रमुखत्व में विचारार्थ जनवरी १९४९ में मिली हुई बैठक में जैसा तय हुआ था तदनुसार दिसम्बर १९४६ में विश्वभर के ७५ एकनिष्ठ शान्तिवादियों का सम्मेलन मिलने जा रहा है । इस सम्मेलन के आमंत्रणदाताओं में प्रसिद्ध जैन गृहस्थ भी शामिल हैं । जैन परम्परा अपने जन्मकाल से ही अहिंसावादी और जुदे-जुदे क्षेत्रों में हिंसा का विविध प्रयोग करनेवाली रही है । सम्मेलन के आयोजकों ने अन्य परिणामों के साथ एक इस परिणाम की भी आशा रक्खी है कि सामाजिक और -राजकीय प्रश्नों को हिंसा के द्वारा हल करने का प्रयत्न करनेवाले विश्व भर के स्त्री-पुरुषों का एक संघ बने । अतएव हम जैनों के लिए आवश्यक हो जाता है कि पहले हम सोचें कि शान्तिवादी सम्मेलन के प्रति अहिंसावादी रूप से जैन परम्परा का क्या कर्त्तव्य है ? क्रिश्चियन शान्तिवाद हो, जैन अहिंसावाद हो हो, सबकी सामान्य मूमिका यह है कि खुद हिंसा से - लोकहित की विधायक प्रवृत्ति करना । परन्तु इस परम्पराओं में कुछ अंशों में जुदे- जुदे रूप से हुआ है शान्तिवाद 1 या गाँधीजी का हिसा मार्ग बचना और यथासम्भव हिंसा तत्त्व का विकास सब “Thou shalt not kill' इत्यादि बाईबल के उपदेशों के आधार पर क्राईस्ट के पक्के अनुयायियों ने जो हिंसामूलक विविध प्रवृत्तियों का विकास किया है उसका मुख्य क्षेत्र मानव समाज रहा है । मानव समाज की नानाविध सेवाओं की सच्ची भावना में से किसी भी प्रकार के युद्ध में, अन्य सब तरह की सामाजिक हित की जवाबदेही को श्रदा करते हुए भी, सशस्त्र भाग न लेने की वृत्तिका भी उदय अनेक शताब्दियों से हुआ है । जैसे-जैसे क्रिश्चियानिटि का 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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