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________________ ५०७. आवश्यक कार्य है कि हम मन चाहे सर्वसम्मत साहित्यिक काम को हाथ में लेने से हिचकिचाते हैं ? मुझको लगता है कि हमारी चिरकालीन संघशक्ति इसलिए कार्यक्षम साबित नहीं होती कि उसमें नव दृष्टि का प्राणस्पन्दन नहीं है। अतएव हमें एक ऐसे संघ की स्थापना करनी चाहिए कि जिसमें जैन जैनेतर, देशी विदेशी गृहस्थ त्यागी पण्डित अध्यापक आदि सब आकृष्ट होकर सम्मिलित हो सकें और संघ द्वारा सोची गई आवश्यक साहित्यिक प्रवृत्तियों में अपने-अपने स्थान में रहकर भी अपनी अपनी योग्यता व रुचि के अनुसार भाग ले सके, निःसंदेह इस नए संघ की नींव कोई साम्प्रदायिक या पान्थिक न होगी। केवल जैन परंपरा से सम्बद्ध सब प्रकार के साहित्य को नई जरूरतों के अनुसार तैयार व प्रकाशित करना और बिखरे हुए योग्य अधिकारियों से विभाजन पूर्वक काम लेना एवं मौजूदा तथा नई स्थापित होने वाली साहित्यिक संस्थाओं को नयी दृष्टि का परिचय कराना इत्यादि इस संघ का काम रहेगा । जिसमें किसी का विसंवाद नहीं और जिसके बिना नए युग की माँग को हम कभी पूरा ही कर नहीं सकते। पुरानी वस्तुओं की रक्षा करना इष्ट है, पर इसी को इतिश्री मान लेना भूल है। अतएव हमें नई एवं स्फूर्ति देने वाली आवश्यकताओं को लक्ष्य में रखकर ऐसे संघ को रचना करनी होगी। इसके विधान, पदाधिकारी, कार्यविभाजन, आर्थिक बाजू आदि का विचार मैं यहाँ नहीं करता। इसके लिए हमें पुनः मिलना होगा। ई० १६५१] १ ओरिएन्टल कॉन्फ्रेन्स के लखनौ अधिवेशन में 'प्राकृत और जैनधर्म' विभाग के अध्यक्षपद से दिया गया व्याख्यान । इसके अन्त में मुनिश्री पुण्यविजयजी द्वारा किये गए कार्य की रूपरेखा और नए प्रकाशनों की सूची है। उसे यहाँ नहीं दिया गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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