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________________ ४६८ जैन धर्म और दर्शन जैन दर्शन जैन दर्शन से संबंध रखने वाले कुछ ही मुद्दों पर संक्षेप में विचार करना यहाँ इष्ट है । निश्चय और व्यवहार नय जैन परम्परा में प्रसिद्ध हैं, विद्वान् लोग जानते हैं कि इसी नय विभाग की आधारभूत दृष्टि का स्वीकार इतर दर्शनों में भी है। बौद्ध दर्शन बहुत पुराने समय से परमार्थ और संवृति इन दो दृष्टियों से निरूपण करता आया है ।' शांकर वेदान्त की पारमार्थिक तथा व्यावहारिक या मायिक दृष्टि प्रसिद्ध है। इस तरह जैन-जेनेतर दर्शनों में परमार्थ या निश्चय और संहति या व्यवहार दृष्टि का स्वीकार तो है, पर उन दर्शनों में उक्त दोनों दृष्टियों से किया जाने वाला तत्त्वनिरूपण बिलकुल जुदा-जुदा है । यद्यपि जैनेतर सभी दर्शनों में निश्चय दृष्टि सम्मत तत्त्वनिरूपण एक नहीं है, तथापि सभी मोक्षलक्षी दर्शनों में निश्चय दृष्टि सम्मत प्राचार व चारित्र एक ही है, भले ही परिभाषा वर्गीकरण आदि भिन्न हों । २ यहाँ तो यह दिखाना है कि जैन परम्परा में जो निश्चय और व्यवहार रूप से दो दृष्टियाँ मानी गई हैं वे तत्त्वज्ञान और आचार दोनों क्षेत्रों में लागू की गई हैं। इतर सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैनदर्शन में भी तत्त्वज्ञान और प्राचार दोनों का समावेश है । जब निश्चय-व्यवहार नय का प्रयोग तत्त्वज्ञान और प्राचार दोनों . में होता है तन, सामान्य रूप से शास्त्र चिन्तन करने वाला यह अन्तर जान नहीं पाता कि तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में किया जाने वाला निश्चय और व्यवहार का प्रयोग आचार के क्षेत्र में किये जाने वाले वैसे प्रयोग से भिन्न है और भिन्न परिणाम का सूचक भी है । तत्त्वज्ञान की निश्चय दृष्टि और प्राचार विषयक निश्चय दृष्टि ये दोनों एक नहीं ! इसी तरह उभय विषयक व्यवहार दृष्टि के बारे में भी समझना चाहिए । इसका स्पष्टीकरण यों है___जब निश्चय दृष्टि से तत्त्व का स्वरूप प्रतिपादन करना हो तो उसकी सीमा में केवल यही बात आनी चाहिए कि जगत के मूल तत्त्व क्या हैं ? कितने हैं ? और उनका क्षेत्र-काल आदि निरपेक्ष स्वरूप क्या है ? और जब व्यवहार दृष्टि से तत्त्व निरूपण इष्ट हो तब उन्हीं मूल तत्त्वों का द्रव्य-क्षेत्र-काल आदि से सापेक्ष स्वरूप प्रतिपादित किया जाता है। इस तरह हम निश्चय दृष्टि का उपयोग करके जैन दर्शन सम्मत तत्त्वों का स्वरूप कहना चाहें तो संक्षेप में यह कह सकते हैं कि चेतन अचेतन ऐसे परस्पर अत्यन्त विजातीय दो तत्त्व हैं। दोनों १. कथावत्थु, माध्यमक कारिका आदि । २. चतुःसत्य, चतुव्यूह, व प्रास्रब-बंधादि चतुष्क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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