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ये प्रकाशन
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चित्रों के विषय में अभ्यासपूर्ण है । उसी प्रकाशक की ओर से 'कल्पसूत्र' शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है। इसका संपादन श्री मुनि पुण्यविजय जी ने किया है। और गुजराती अनुवाद पं० बेचरदास जी ने ।
मूलरूप में पुराना, पर इस युग में नए रूप से पुनरुज्जीवित एक साहित्य संरक्षक मार्ग का निर्देश करना उपयुक्त होगा । यह मार्ग है शिला व धातु के ऊपर साहित्य को उत्कीर्ण करके चिरजीवित रखने का । इसमें सबसे पहले पालीताना के श्रागममंदिर का निर्देश करना चाहिए। उसका निर्माण जैन साहित्य के उद्धारक, समस्त आगमों और श्रागमेतर सैकड़ों पुस्तकों के संपादक आचार्य सागरानन्द सूरि जी के प्रयत्न से हुआ है। उन्होंने ऐसा ही एक दूसरा मंदिर सूरत में बनवाया है। प्रथम में शिलाओं के ऊपर और दूसरे में ताम्रपटों के ऊपर प्राकृत जैन आगमों को उत्कीर्ण किया गया है । हम लोगों के दुर्भाग्य से ये साहित्यसेवी सूरि अब हमारे बीच नहीं हैं। ऐसा ही प्रयत्न षट्खंडागम की सुरक्षा का हो रहा है । वह भी ताम्रपट पर उत्कीर्ण हो रहा है । आधुनिक वैज्ञानिक तरीके का उपयोग तो मुनि श्री पुण्य विजय जी ने ही किया है । उन्होंने जैसलमेर के भंडार की कई प्रतियों का सुरक्षा और सर्व सुलभ करने की दृष्टि से माइक्रोफिल्मिंग कराया है ।
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संशोधकों व ऐतिहासिकों का ध्यान खींचने वाली एक नई संस्था का भी प्रारंभ हुआ है । राजस्थान सरकार ने मुनि श्री जिन विजय जी को अध्यक्षता में 'राजस्थान पुरातत्त्व मंदिर' की स्थापना की है। राजस्थान में सांस्कृतिक व ऐतिहासिक अनेकविध सामग्री बिखरी पड़ी है। इस संस्था द्वारा वह सामग्री प्रकाश में आएगी तो संशोधन क्षेत्र का बड़ा उपकार होगा ।
प्रो० एच० डी० बेलणकर ने हरितोषमाला नामक ग्रन्थमाला में 'जयदामन् ' नाम से छन्दःशास्त्र के चार प्राचीन ग्रन्थ संपादित किये हैं । 'जयदेव छन्दस्', जयकीर्ति कृत 'छन्दोनुशासन', केदार का 'वृत्तरत्नाकर', और आ० हेमचन्द्र का 'छन्दोनुशासन' इन चार ग्रन्थों का उसमें समावेश हुआ है ।
“Studien zum Mahanisiha' नाम से हेमबर्ग से अभी एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है । इसमें महानिशीथ नामक जैन छेदग्रन्थ के छठे से आठवें अध्ययन तक का विशेषरूप से अध्ययन Frank Richard Hamn और डॉ० शुक्रिंग ने करके अपने अध्ययन का जो परिणाम हुआ उसे लिपिबद्ध कर दिया है ।
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