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________________ मुनि श्री पुण्यविजय जी का कार्य ४८६ निःसंदेह आगमिक साहित्य के प्रकाशन के वास्ते भिन्न-भिन्न स्थानों में अनेक वर्षों से आज तक अनेक प्रयत्न हुए हैं। वे प्रयत्न कई दृष्टि से उपयोगी भी सिद्ध हुए हैं तो भी प्रो० जेकोबी और डॉ० शुबिंग ने जैसा कहा है वैसे ही संशोधित संपादन की दृष्टि से एक अखण्ड प्रयत्न को आवश्यकता आज तक बनी हुई है । डॉ. पिशल ने इस शताब्दी के प्रारंभ में ही सोचा था कि 'पालि टेक्स्ट सोसायटी जैसी एक 'जैन टेक्स्ट सोसायटी' की आवश्यकता है। हम सभी प्राच्यविद्या के अभ्यासी और संशोधन में रस लेनेवाले भी अनेक वर्षों से ऐसे ही श्रागमिक साहित्य तथा इतर जैन साहित्य के संशोधित संस्करण के निमित्त होने वाले सुसंवादी प्रयत्न का मनोरथ कर रहे थे । हर्ष की बात है कि पिशल आदि की सूचना और हमलोगों का मनोरथ अब सिद्ध होने जा रहा है। इस दिशा में भगीरथ प्रयत्न करने वाले वे ही मुनि श्री पुण्यविजयजी हैं जिनके विषय में डॉ. उपाध्ये ने दश वर्ष पहिले कहा था "He ( late Muni Shri Chaturavijayaji ) has left behind a worthy and well trained pupil in Shri Punyavijayaji who is silently carrying out the great traditions of learning of his worthy teacher." मैं मुनि श्री पुण्यविजयजी के निकट परिचय में ३६ वर्ष से सतत रहता आया हूँ। उन्होंने लिम्बड़ी, पाटन, बड़ौदा आदि अनेक स्थानों के अनेक भंडारों को सुव्यवस्थित किया है और सुरक्षित बनाया है। अनेक विद्वानों के लिए संपादनसंशोधन में उपयोगी हस्तलिखित प्रतियों को सुलभ बनाया है । उन्होंने स्वयं अनेक महत्त्व के संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों का संपादन भी किया है। इतने लम्बे और पक्क अनुभव के बाद ई० स० १६४५ में 'जैन आगम संसद' की स्थापना करके वे अब जैनागमों के संशोधन में उपयोगी देश विदेश में प्राप्य समग्र सामग्री को जुटाने में लग गए हैं। मैं आशा करता हूँ कि उनके इस कार्य से जैनागमों की अन्तिम रूप में प्रामाणिक श्रावृत्ति हमें प्राप्त होगी। आगमों के संशोधन की दृष्टि से ही वे अब अपना विहारक्रम और कार्यक्रम बनाते हैं। इसी दृष्टि से वे पिछले वर्षों में बड़ौदा, खंभात, अहमदाबाद आदि स्थानों में रहे और वहाँ के भंडारों को यथासंभव सुव्यस्थित करने के साथ ही आगमों के संशोधन में उपयोगी बहुत कुछ सामग्री एकत्र की है । पाटन, लिम्बड़ी, भावनगर आदि के भंडारों में जो कुछ है वह तो उनके पास संगृहीत था ही। उसमें बड़ौदा आदि के भंडारों से जो मिला उससे पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हुई है। इतने से भी वे संतुष्ट न हुए और -स्वयं जैसलमेर के भंडारों का निरीक्षण करने के लिए अपने दलबल के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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