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जैन धर्म और दर्शन विशेष महत्त्व का है । वह सभी भारतीय विश्वविद्यालयों को एक प्रस्ताव के द्वारा अपना सुझाव पेश कर सकती है जो इस मतलब का हो
"कोई भी संस्कृत भाषा का अध्यापक ऐसा नियुक्त न किया जाए जिसने प्राकृत भाषाओं का कम से कम भाषादृष्टि से अध्ययन न किया हो। इसी तरह कोई भी प्राकृत व पालि भाषा का अध्यापक ऐसा नियुक्त न हो जिसने संस्कृत भाषा का अपेक्षित प्रामाणिक अध्ययन न किया हो।"
इसी तरह प्रस्ताव में पाठ्यक्रम संबन्धी भी सूचना हो वह इस मतलब की कि
“कॉलेज के स्नातक तक के भाषा विषयक अभ्यास क्रम में संस्कृत व प्राकृत दोनों का साथ-साथ तुल्य स्थान रहे, जिससे एक भाषा का ज्ञान दूसरी भाषा के ज्ञान के बिना अधूरा न रहे। स्नातक के विशिष्ट (आनर्स) अभ्यास क्रम में तो संस्कृत, प्राकृत व पालि भाषाओं के सह अध्ययन की पूरी व्यवस्था करनी चाहिए । जिससे विद्यार्थी आगे के किसी कार्यक्षेत्र में परावलम्बी न बने।"
उक्त तीनों भाषाओं एवं उनके साहित्य का तुलनात्मक व कार्यक्षम अध्ययन होने से स्वयं अध्येता व अध्यापक दोनों का लाभ है । भारतीय संस्कृति का यथार्थ निरूपण भी संभव है और आधुनिक संस्कृत-प्राकृत मूलक सभी भाषाओं के विकास की दृष्टि से भी वैसा अध्ययन बहुत उपकारक है। उल्लेख योग्य दो प्रवृत्तियाँ___डॉ० उपाध्ये ने आगमिक साहित्य के संशोधित संपादन की ओर अधिकारियों का ध्यान खींचते हुए कहा है कि
"It is high time now for the Jaina Community and the orientalists to collaborate in order to bring forth a standard edition of the entire Ardhamagadhi canon with the available Nijjuttis and Curnis on an uniform plan. It would be a solid foundation for all further studies. Pischel did think of a Jaina Text Society at the beginning of this century, in 1914, on the eve of his departure from India, Jacobi apnounced that an edition of the Siddhanta, the text of which can lay a claim to finality, would only be possible by using the old palm-leaf Mss. from the Patan Bhandaras, and only four years back Dr. Schubring also stressed this very point."
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