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________________ ४. शास्त्रीय भाषाओं का अभ्यास ४८५ इसी प्रकार जब शब्दों को भी अपने वर्तुल में साधु बतलाते हुए पाते हैं। श्राचार्य रक्षित 'अनुयोगद्वार में संस्कृत-प्राकृत दोनों उक्तियों को प्रशस्त बतलाते हैं, व वाचक उमास्वाति श्रार्यभाषा रूप से किसी एक भाषा का निर्देश न करके केवल इतना ही कहते हैं कि जो भाषा स्पष्ट और शुद्ध रूप से उच्चारित हो और लोक संव्यवहार साध सके वह आर्य भाषा, तब हमें कोई संदेह नहीं रहता कि अपने-अपने शास्त्र की मुख्य भाषा की शुद्धि की रक्षा की ओर ही तात्कालिक परंपरागत विद्वानों का लक्ष्य था । 3 पर उस सांप्रदायिक एकांगी आत्मरक्षा की दृष्टि में धीरे-धीरे ऊँच-नीच भाव के अभिमान का विष दाखिल हो रहा था । हम इसकी प्रतीति सातवीं शताब्दी के आसपास के ग्रन्थों में स्पष्ट पाते हैं । फिर तो भोजन, विवाह, व्यवसाय आदि व्यवहार क्षेत्र में जैसे ऊँच-नीच भाव का विष फैला वैसे ही शास्त्रीय भाषाओं के वर्तुल में भी फैला । अलंकार, काव्य, नाटक आदि के अभ्यासी विद्यार्थी व पंडित उनमें आने वाले प्राकृत भागों को छोड़ तो सकते न थे, पर वे विधिवत् आदरपूर्वक अध्ययन करने के संस्कार से भी वंचित थे । इसका फल यह हुआ कि बड़े बड़े प्रकाण्ड गिने जाने वाले संस्कृत के दार्शनिक व साहित्यिक विद्वानों ने अपने विषय से संबद्ध प्राकृत व पालि साहित्य को छुआ तक नहीं । यही स्थिति पालि . पिटक के एकांगी अभ्यासियों की भी रही । उन्होंने भी अपने-अपने विषय से संबद्ध महत्वपूर्ण संस्कृत साहित्य की यहाँ तक उपेक्षा की कि अपनी ही परंपरा में बने हुए संस्कृत वाङ्मय से भी वे बिलकुल अनजान रहे । इस विषय में जैन परंपरा की स्थिति उदार रही है, क्योंकि श्र० श्रार्यरक्षित ने तो संस्कृत - प्राकृत दोनों का समान रूप से मूल्य का है । परिणाम यह है कि वाचक उमास्वाति के समय से आज तक के लगभग १५०० वर्ष के जैन विद्वान संस्कृत और प्राकृत वाङ्मय का तुल्य आदर करते आए हैं । और सत्र विषय के साहित्य का निर्माण भी दोनों भाषाओं में करते आए हैं । इस एकांगी अभ्यास का परिणाम तीन रूपों में हमारे सामने है । पहला १. वाक्यपदीय प्रथम काण्ड, का० २४८-२५६ । २. अनुयोगद्वार पृ० १३१ । ३. तत्त्वार्थभाष्य ३. १५ । ४. 'असाधुशब्दभूयिष्ठाः शाक्य जैनागमादयः' इत्यादि, तंत्रवार्तिक पृ० २३७ ५. उदाहरणार्थ- सीलोन, बर्मा आदि के भिक्खू महायान के संस्कृत ग्रन्थों से अछूते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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