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जैन धर्म और दर्शन
आनेवाले प्राकृत गद्य-पद्य का उनके मुँह से वाचन सुन कर विस्मित सा हो जाता था, यह सोच कर कि इतने बड़े संस्कृत के दिग्गज पंडित प्राकृत को यथावत् पढ़ भी क्यों नहीं सकते ? विशेष अचरज तो तब होता था जब वे प्राकृत गद्य-पद्य का संस्कृत छाया के सिवाय अर्थ ही नहीं कर सकते थे। ऐसा ही अनुभव मुझको प्राकृत व पालि के पारदर्शी पर एकांगी श्रमणों के निकट भी हुआ है, जब कि उन्हें संस्कृत भाषा में लिखे हुए अपने परिचित विषय को ही पढ़ने का अवसर आता । धीरे-धीरे उस अचरज का समाधान यह हुआ कि वे पुरानी एकांगी प्रथा से पढ़े हुए हैं। पर यह त्रुटि जब यूनिवर्सिटी के अध्यापकों में भी देखी तब मेरा अचरज द्विगुणित हो गया। हम भारतीय जिन पाश्चात्य विद्वानों का अनुकरण करते हैं उनमें यह त्रुटि नहीं देखी जाती । अतएव मैं इस वैषम्य के मूल कारण की खोज करने लगा तो उस कारण का कुछ पता चल गया जिसका सूचन करना भावी सुधार की दृष्टि से अनुपयुक्त नहीं। ___ जैन श्रागम भगवती में कहा गया है कि अर्धमागधी देवों की भाषा है।' बौद्ध पिटक में भी बुद्ध के मुख से कहलाया गया है कि बुद्धबचन को प्रत्येक देश के लोग अपनी-अपनी भाषा में कहें २, उसे संस्कृतबद्ध करके सीमित करने की आवश्यकता नहीं। इसी तरह पतंजलि ने महाभाष्य में संस्कृत शब्दानुशासन के प्रयोजनों को दिखाते हुए कहा कि 'न म्लेच्छितवै नापभाषितवै अर्थात् ब्राह्मण अपभ्रंश का प्रयोग न करे । इन सभी कथनों से आपाततः ऐसा जान पड़ता है कि मानों जैन व बौद्ध प्राकृतभाषा को देववाणी मान कर संस्कृत का तिरस्कार करते हैं या महाभाष्यकार संस्कृतेतर भाषा को अपभाषा कह कर तिरस्कृत करते हैं। पर जब आगे पीछे के संदर्भ व विवरण तथा तत्कालीन प्रथा के आधार पर उन कथनों की गहरी जाँच की तो स्पष्ट प्रतीत हुआ कि उस जमाने में भाषाद्वेष का प्रश्न नहीं था किन्तु अपने शास्त्र की भाषा की संस्कार शुद्धि की रक्षा करना, इसी उद्देश्य से शास्त्रकार चर्चा करते थे । इस सत्य की प्रतीति तब होती है जब हम भर्तृहरि को 'वाक्यपदीय' में साधु-असाधु शब्दों के प्रयोग की चर्चा-प्रसंग में अपभ्रंश व असाधु कहे जानेवाले
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सदा ९।
१. भगवती श० ५, उ. ४ । प्रज्ञापना-प्रथमपद में मागधी को आर्य भाषा कहा है।
२. चुल्लवग्ग-खुद्द क-वत्थुखन्ध-बुद्धवचननिरुत्ति । ३. महाभाष्य पृ० ४६ ।
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