________________
'अकलंकमन्यत्रय
४८१
' अकलंकग्रन्थत्रय के संपादक पं. महेन्द्रकुमारजी के साथ मेरा परिचय छह साल का है। इतना ही नहीं बल्कि इतने अरसे के दार्शनिक चिन्तन के अखाड़े में हमलोग समशील साधक हैं। इससे मैं पूरा ताटस्थ्य रखकर भी निःसंकोच कह सकता हूँ कि पं० महेन्द्रकुमारजीका विद्याव्यायाम कम से कम जैन परंपरा के लिए तो सत्कारास्पद ही नहीं अनुकरणीय भी है। प्रस्तुत ग्रंथ का बहुश्रुतसंपादन उक्त कथन का साक्षी है । प्रस्तावना में विद्वान् संपादक ने अकलंक देव के समय के बारे में जो विचार प्रकट किया है मेरी समझ में अन्य समर्थ प्रमाणों के अभाव में वही विचार अान्तरिक यथार्थ तुलनामूलक होने से सत्य के विशेष निकट है। समयविचार में संपादक ने जो सूक्ष्म और विस्तृत तुलना की है वह तत्त्वज्ञान तथा इतिहास के रसिकों के लिए बहुमूल्य भोजन है। ग्रन्थ के परिचय में संपादक ने उन सभी पदार्थों का हिन्दी में वर्णन किया है जो अकलंकीय प्रस्तुत ग्रन्थत्रय में ग्रथित हैं। यह वर्णन संपादक के जैन और जैनेतर शास्त्रों के आकंठपान का उद्गार मात्र है। संपादक की दृष्टि यह है कि जो अभ्यासी जैन प्रमाण शास्त्र में आनेवाले पदार्थों को उनके असली रूप में हिन्दी भाषा के द्वारा ही अल्पश्रम में जानना चाहें उन्हें वह वर्णन उपयोगी हो। पर उसे साद्यन्त सुन लेने के बाद मेरे ध्यान में तो यह बात आई है कि संस्कृत के द्वारा ही जिन्होंने जैन न्याय-प्रमाण शास्त्र का परिशीलन किया है वैसे जिज्ञासु अध्यापक भी अगर उस वर्णन को पट जायँगे तो संस्कृत मूल ग्रन्थों के द्वारा भी स्पष्ट एवं वास्तविक रूप में अज्ञात कई प्रमेयों को वे सुज्ञात कर सकेंगे। उदाहरणार्थ कुछ प्रमेयों का निर्देश भी कर देता हूँ-प्रमाणसंप्लव, द्रव्य और सन्तान की तुलना आदि। सर्वज्ञत्व भी उनमें से एक है, जिसके बारे में संपादक ने ऐसा ऐतिहासिक प्रकाश डाला है जो सभी दार्शनिकों के लिए ज्ञातव्य है। विशेषज्ञों के ध्यान में यह बात बिना पाए नहीं रह सकती कि कम से कम जैन न्यायप्रमाण के विद्यार्थियों के वास्ते तो सभी जैन संस्थाओं में यह हिन्दी विभाग वाचनीय रूप से अवश्य सिफारिश करने योग्य है ।
प्रस्तुत ग्रंथ उस प्रमाणमीमांसा की एक तरह से पूर्ति करता है जो थोड़े ही दिनों पहले सिंघी जैन सिरीज में प्रकाशित हुई है। प्रमाणमीमांसा के हिन्दी टिप्पणों में तथा प्रस्तावना में नहीं पाए ऐसे प्रमेयों का भी प्रस्तुत ग्रंथ के हिन्दी वर्णन में समावेश है। और उसमें आए हुए अनेक पदार्थों का सिर्फ दूसरी भाषा तथा शैली में ही नहीं बल्कि दूसरी दृष्टि तथा दूसरी सामग्री के साथ समावेश है। अतएव कोई भी जैन तत्त्वज्ञान का एवं न्याय-प्रमाणशास्त्र का गम्भीर अभ्यासी सिंघी जैन सिरीज के इन दोनों ग्रंथों से बहुत कुछ जान सकेगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org